मदर टेरेसा का नाम आते ही सफेद‑नीले किनारे वाली साड़ी, झुकी हुई पीठ और थामे हुए हाथों की याद आती है; पर इस छवि के भीतर छुपा सार केवल दया नहीं, बल्कि सुधार की वह दृष्टि है जो व्यक्ति को केंद्र में रखकर व्यवस्था बदलने का मार्ग दिखाती है। सुधार अक्सर नीति, कानून और बजट की भाषा में लिखा जाता है; मदर टेरेसा ने उसे इंसानी स्पर्श, छोटे‑छोटे कदमों और निरंतर अभ्यास की भाषा दी। उन्होंने सिखाया कि “जहाँ हाथ बढ़े, वहाँ रास्ता बनता है”; इसलिए उनके यहाँ सुधार का पहला पाठ था—सम्मान के साथ सेवा। पीड़ा को केवल आँकड़ों में नहीं, आँखों में देखने की आदत ने उन्हें ‘अदृश्य’ लोगों तक पहुँचाया—फुटपाथ पर सोता रोगी, अनाथ शिशु, त्यक्त वृद्ध, और असहाय स्त्री—यही उनके सुधार की प्राथमिकता थे। उनके लिए बदलाव का सूत्र था: एक इंसान, एक पल, एक काम। यही ‘सूक्ष्म‑सुधार’ धीरे‑धीरे सामाजिक परिवर्तनों का बीज बना—हॉस्पाइस देखभाल की गरिमा, सड़क पर रह रहे लोगों के लिए छत, पालन‑पोषण की नयी परिभाषा, और बेआवाज़ों के लिए आवाज़। कहावत है—“बूँद‑बूँद से सागर”; उन्होंने बूँद को कभी छोटा नहीं समझा। मदर का सुधारवादी दृष्टिकोण सरल था पर गहरा—दर्द को पूजा मानना नहीं, पर पीड़ित को गरिमा देना; परित्याग नहीं, सहभागिता; उपदेश नहीं, उपस्थिति। इसी दर्शन ने उनके कार्य को युगांतरकारी बनाया। आज जब समाज ‘डाटा‑ड्रिवन’ और ‘टार्गेट‑ड्रिवन’ बनता जा रहा है, उनकी राह याद दिलाती है कि लोगों के बीच खड़े होकर, उनका नाम पूछकर, उनकी आँखों में देखते हुए ही टिकाऊ सुधार सम्भव है। उन्होंने हर दिन, हर गली, हर वार्ड में यह साबित किया कि सेवा तब सुधार बनती है जब वह नीति की फाइल नहीं, पड़ोस की आदत बन जाए।
स्कोप्जे (तत्कालीन यूगोस्लाविया) में जन्मी एग्नेस गोंझा बोयाजियू के जीवन में ‘बुलाहट’ बहुत जल्दी आ गई—घर की तंगी, पिता की असमय मृत्यु और माँ की करुणा‑संस्कारों ने उनकी संवेदना को धार दी। किशोरावस्था में ही उन्होंने महसूस किया कि “रोटी की भूख से अधिक बड़ी है प्यार की भूख”; यही वाक्य आगे चलकर उनके सुधार‑दर्शन का केन्द्रीय सूत्र बना। शिक्षिका बनने के बाद भारत को अपना कर्मक्षेत्र चुनना उनके लिए मात्र ‘पोस्टिंग’ नहीं, ‘प्रतिज्ञा’ थी—दूर देश, नई भाषा, अपरिचित समाज—सबके बीच उन्होंने सीखने की विनम्रता नहीं छोड़ी। कलकत्ता के सेंट मेरी स्कूल में पढ़ाते हुए उन्हें एहसास हुआ कि स्कूल के बाहर खड़ी भूख, बीमारी और बेघरपन को केवल किताब के अध्याय नहीं, जीवन के अध्याय चाहिए। दार्जिलिंग की यात्रा के दौरान “आंतरिक पुकार” ने उनके भीतर लिख दिया—“सब कुछ छोड़कर सबसे गरीब के साथ चलो।” यह पुकार सुधारवादी थी, क्योंकि वह ‘नीति परिवर्तन’ नहीं, ‘जीवन परिवर्तन’ माँगती थी—पहले अपना जीवन सरल करो, फिर सादगी से लोगों के जीवन में उतर जाओ। उन्होंने सुधार का पहला प्रयोग अपने ऊपर किया—विलास छोड़कर मितव्ययिता, दूरी छोड़कर निकटता, और ‘मैं’ छोड़कर ‘हम’। यही आत्म‑संस्कार उनकी आगे की हर पहल की आत्मा बना—जहाँ भी गईं, पहले सुनती रहीं, फिर करती रहीं, और अंत में लोगों से करवाती रहीं—यही सतत सुधार की विधि है।
हॉस्पाइस और गरिमामय देखभाल का विचार उनके हाथों ‘निर्मल हृदय’ में आकार लेता है—फुटपाथ से उठाकर अंतिम दिनों में स्वच्छ बिस्तर, दवा, भोजन, और सबसे बढ़कर स्नेह; उन्होंने ‘मरने के अधिकार’ नहीं, ‘मान से जीने’ के अधिकार की भाषा गढ़ी। यह सुधार इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि उसने स्वास्थ्य‑प्रणाली की ‘उपेक्षित कड़ी’ पकड़ी—जब अस्पताल मना करे, तब भी मनुष्यता मना न करे। वही दृष्टि आगे ‘निर्मल शिशु भवन’, ‘कुष्ठ‑निवारण केन्द्र’, मोबाइल दवाखानों और भोजन‑सेवा तक फैली—यह सब ‘पैचवर्क’ नहीं, एक संगठित सुधार‑जाल था जिसमें जरूरत, संसाधन और लोगों की भागीदारी ताना‑बाना बनते हैं। उन्होंने गणवेश के रूप में सादी सूती साड़ी अपनाकर संदेश दिया कि सेवा का वेशभूषा भी संवाद है—“मैं तुम्हारी तरह ही हूँ, तुम्हारे बीच हूँ।” पेशेवर प्रबंधन और साधारण जीवनशैली का यह मेल उनकी विशिष्ट ताकत रहा—कहीं ‘स्पीड पोस्ट’ की तरह तुरंत पहुँच, तो कहीं ‘रजिस्ट्री’ की तरह दर्ज जिम्मेदारी; सेवा का हर काम प्रक्रिया‑सम्मत, पर व्यक्ति‑केन्द्रित। सुधारवादी नजरिया यहीं दिखता है—नीति‑वाक्यों से पहले व्यवहार‑नियम, और नारे से पहले दिनचर्या। उन्होंने बताया कि व्यवस्था तब बदलती है जब नियम किताब में नहीं, कक्ष में, किचन में, और गलियारे में दिखें।
‘मिशनरीज ऑफ चैरिटी’ का ढांचा सुधार की प्रयोगशाला था—व्रत केवल आध्यात्मिक अनुशासन नहीं, कार्य‑नैतिकता भी था: गरीबी का व्रत संसाधनों की जवाबदेही सिखाता है, आज्ञाकारिता का व्रत टीम‑वर्क, और निशुल्क सेवा का व्रत हित‑संघर्ष से दूरी। संस्था का गठन किसी कॉरपोरेट की तरह KPI टेबल से नहीं, पड़ोस की जरूरतों से हुआ—कौन भूखा, कौन बीमार, कौन असुरक्षित, किसे गोद, किसे आश्रय—यही उनके ‘डैशबोर्ड’ थे। उन्होंने सेतुओं की राजनीति की—सरकारी योजनाओं, स्थानीय अस्पतालों, चर्च/मंदिर/गुरुद्वारों, अध्यापकों और स्वयंसेवकों को एक पंक्ति में साधा; “जहाँ जो है, वही जोड़ो”—यह सुधार का व्यवहारिक मंत्र है। दान को ‘अनुग्रह’ नहीं, ‘उत्तरदायित्व’ मानकर उपयोग करना, और दाताओं को केवल धन्यवाद नहीं, भरोसा देना—यह वित्तीय अनुशासन उनकी विश्वसनीयता की रीढ़ बना। इसी अनुशासन ने छोटे‑छोटे केंद्रों को बड़े‑बड़े प्रभावों में बदला—शहरों की अनदेखी गलियाँ सामाजिक मानचित्र पर दर्ज होने लगीं। सुधारवादी दृष्टि का यही सौंदर्य है—वह भाषण नहीं करती, व्यवस्था की ‘क्रिया’ बदल देती है।
भारत के संदर्भ में उनका योगदान केवल परोपकार नहीं, सामाजिक‑सुधार का विद्यालय है। भारतीय नागरिकता स्वीकार कर उन्होंने ‘मेहमान’ नहीं, ‘अपना’ होने का संदेश दिया; विविधता के बीच उन्होंने ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ को कर्म से जिया—बिना पूछे मदद, बिना भेद सम्मान, बिना हंगामे काम। 1979 का नोबेल शांति पुरस्कार और राष्ट्रीय सम्मान इस बात की मोहर हैं कि उनका रास्ता दुनिया के विवेक को छूता है; पर उन्होंने पुरस्कारों को लक्ष्य नहीं, जिम्मेदारी समझा। वे जानती थीं कि भारत जैसे विशाल देश में सरकार बहुत कुछ कर सकती है, पर सब कुछ नहीं; इसलिए नागरिक‑समाज की भूमिका स्थायी सुधार की कुंजी है। शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण—इन तीन क्षेत्रों में उनकी पहल ने “हाथ पकड़ो, फिर चलना सिखाओ” की संस्कृति रची। सुधार का अर्थ उनके यहाँ ‘सिस्टम‑फिक्स’ से आगे ‘सोशल‑हैबिट’ बनाना था—पड़ोस की भूख को ‘अपना मुद्दा’ मानना, मोहल्ले के अस्पताल को ‘अपनी जिम्मेदारी’ समझना, और सफाई/जल जैसे विषयों को ‘अपनी दिनचर्या’ में बाँधना। यही नागरिकता की असली कक्षा है।
विवादों और असहमतियों ने उनके काम को घेरा भी, पर इसने सुधार‑चर्चा को परिपक्व बनाया। चिकित्सा‑मानकों, फंड‑उपयोग, धर्म और वैचारिक मतों पर उठे प्रश्न हमारे समाज को यह समझाते हैं कि ‘करुणा’ और ‘कम्प्लायंस’ साथ‑साथ चलने चाहिए। सुधारवादी दृष्टि यही कहती है—न तो नीयत पर हमले से व्यवस्था सुधरेगी, न ही प्रश्नों से बचकर विश्वसनीयता बचेगी; समाधान है पारदर्शिता, गुणवत्ता‑मानक, स्वतंत्र ऑडिट, और गरिमा‑केंद्रित देखभाल। मदर टेरेसा ने स्वयं कहा था—“मैं सामाजिक कार्यकर्ता नहीं; मैं यह ईश्वर और मनुष्यता के लिए करती हूँ”—यह वाक्य आलोचना का उत्तर नहीं, उनके उद्देश्य का परिचय है। आज का रास्ता यह हो सकता है कि उनकी विरासत को ‘पीड़ा‑सम्मान’ और ‘नैतिक‑मानक’ के आधुनिक ढाँचों से जोड़ा जाए—क्लिनिकल गाइडलाइन, बाल‑सुरक्षा नीति, डेटा‑सुरक्षा, और शिकायत निवारण तंत्र—ताकि दया और अधिकार एक ही छत के नीचे रहें। यही परिपक्व सुधार है—भावनाओं का मूल्य, पर प्रक्रियाओं का भी मान।
वर्तमान युग में उनकी सीख और जरूरी हो गई है। महामारी के बाद दुनिया ने जाना कि असुरक्षित व्यक्ति, असंगठित श्रम और अनौपचारिक बस्तियाँ सबसे पहले और सबसे ज्यादा चोट खाती हैं; ऐसे में समुदाय‑आधारित देखभाल, होम‑आइसोलेशन सहायता, राशन/दवा आपूर्ति और मानसिक‑स्वास्थ्य परामर्श—यह सब ‘सुधार’ की नई शब्दावली है। डिजिटल दान, पारदर्शी रिपोर्टिंग, स्वयंसेवक‑प्रबंधन ऐप, और स्थानीय‑भाषा में हेल्पलाइन—यह तकनीकी पुल सेवा को तेज और उत्तरदायी बनाते हैं। जलवायु‑आपदाओं—बाढ़, भूकंप, ठंड की लहर—में राहत‑केंद्र, कम्बल/भोजन बैंक और मोबाइल‑क्लिनिक—ये सब ‘निर्मल हृदय’ की समकालीन प्रतिध्वनियाँ हैं। 2016 में संत के रूप में मान्यता उनकी आध्यात्मिक विरासत का सम्मान है; पर असली सम्मान तब होगा जब उनके आदर्श को SDGs—गरीबी, स्वास्थ्य, लैंगिक समानता, सुरक्षित शहर—से जोड़कर जिलों की कार्ययोजना में उतारा जाए। सुधारवादी दृष्टि हमेशा ‘यहाँ और अभी’ से शुरू होती है—वार्ड मीटिंग, स्कूल क्लब, पंचायत की एजेंडा सूची—यहीं से बड़ा बदलाव चलता है।
युवा‑केन्द्रित सुधार को उन्होंने व्यवहारिक बनाया—सीखने, सेवा और नेतृत्व का त्रिवेणी संगम। आज स्कूल‑कॉलेज ‘सेवा‑अवधि’ (service learning) अपनाकर स्थानीय समस्याओं पर काम कर सकते हैं—आँगनवाड़ी की रंगाई, पुस्तकालय में बच्चों की कहानी‑घड़ी, वृद्धाश्रम में ‘टेक‑हेल्प डेस्क’, और ब्लड/प्लाज्मा डोनर नेटवर्क। “जिस हाथ ने मोबाइल पकड़ा, वही हाथ किसी का हाथ पकड़े”—यही आज की भाषा में मदर की सीख है। लड़कियों के लिए सुरक्षित आश्रय, काउंसलिंग, और कौशल‑पाठ्यक्रम—सुधार का अगला मोर्चा है; बाल‑सुरक्षा नीति, पृष्ठभूमि जाँच और शिकायत तंत्र अनिवार्य गार्डरेल हैं। शहरों में ‘नाइट शेल्टर’ को भोजन‑काउंटर, प्राथमिक दवा और नहाने‑धोने की सुविधा से जोड़ा जाए; यह छोटा परिवर्तन सड़कों के जीवन को मान देता है। युवा‑स्वयंसेवकों को “क्यों” से “कैसे” की ओर ले जाना—यही सुधार की असली ट्रेनिंग है।
माँ‑और‑शिशु के स्वास्थ्य, पलायन और शहरी‑गरीबी आज के तीन जलते प्रश्न हैं; मदर‑दृष्टि इन पर भी व्यावहारिक रास्ते दिखाती है। पहले, शहरी‑बस्तियों में ‘कम्युनिटी हेल्थ वर्कर’ और होम‑विजिट—अल्प‑वज़न, टीकाकरण, प्रसव‑पूर्व जाँच—इन सबकी ‘डोर‑टू‑डोर’ निगरानी; दूसरा, पोषण रसोई और चलन्त दवाखाना—कामकाजी गरीबों के समय के मुताबिक खुलने वाले केंद्र; तीसरा, दस्तावेजीकरण—आधार/खाता/बीमा/राशन—बिना कागज़ गरीब अदृश्य है, यह सच्चाई सुधार की कुंजी है। “छत, चूल्हा, चिट्ठा”—इन तीन C को मिलाकर ही शहर इंसानी बनते हैं। मदर की शैली में इसका अर्थ है—सादा समाधान, सतत उपस्थिति, और सुदृढ़ साझेदारी; यही त्रिसूत्र आज के नगर‑निगम, NGOs और नागरिक समूहों का साझा कार्य‑योजना बन सकता है।
इतिहास गवाह है कि सुधार वहाँ टिकता है जहाँ ‘लोग’ खड़े रहते हैं। इसलिए उनकी विरासत को जीवित रखने की पाँच राहें हैं—एक, गरिमा‑केंद्रित देखभाल को कानून और पाठ्यक्रम में स्थान; दो, स्वयंसेवा को क्रेडिट/स्कॉलरशिप से जोड़ना; तीन, दान की पारदर्शिता—ओपन डैशबोर्ड, ऑडिट, प्रभाव‑रिपोर्ट; चार, आस्था‑समूह और सरकार की ‘को‑ऑर्डिनेशन सेल’; पाँच, महिलाओं के नेतृत्व को अग्रता—क्योंकि करुणा और कड़ाई, दोनों का संतुलन अक्सर वही बेहतर साधती हैं। कहावत है—“धीरे चलो, दूर चलो”; मदर‑दृष्टि यही समझाती है कि सेवा की गति धीमी सही, पर उसकी दिशा सीधी हो—व्यक्ति से पड़ोस, पड़ोस से शहर, और शहर से समाज। जब नीति‑निर्माता, प्रबंधक, अध्यापक और युवा एक पंक्ति में आ जाते हैं, तो सुधार परियोजना नहीं—परंपरा बनता है।
अंत में, मदर टेरेसा का सुधारवादी दृष्टिकोण किसी ‘वाद’ का घोष नहीं, मनुष्यता का अभ्यास है। उन्होंने दिखाया कि पीड़ा को महिमा नहीं, पर पीड़ित को गरिमा देना ही सच्चा धर्म है; कि सुधार का पहला पन्ना किसी कार्यालय में नहीं, रसोई, वार्ड और फुटपाथ पर पलटता है; कि बड़े परिवर्तन ‘माइक्रो‑मोमेंट’ से जन्म लेते हैं—किसी का नाम लेकर पुकारना, किसी के कंधे पर हाथ रखना, किसी को अंतिम साँस तक अपना समझना। “रोटी बाँटो, पर पहले आँखें मिलाओ”—यही उनकी नीति‑ग्रंथ का मुखपृष्ठ है। यदि इस युग का समाज दया को नियम, और नियम को आदत बना ले, तो अस्पतालों की कतारें छोटी होंगी, शेल्टर‑होम सुरक्षित होंगे, और विद्यालयों में सेवा‑घंटियाँ बजेंगी। तब ‘करुणा’ केवल भाव नहीं, व्यवस्था होगी—और यही मदर टेरेसा की सबसे बड़ी जीत होगी: इंसान की आँख में इंसान का पुनर्जन्म।
अस्वीकरण (Disclaimer):
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