(यह कहानी जापान की एक पुरानी लोककथा पर आधारित है)
पहाड़ों में बसा एक शांत घर
बहुत समय पहले की बात है। एक वृद्ध किसान और उसकी पत्नी ऊँचे पहाड़ों में एक छोटे से घर में रहते थे। उनका कोई पड़ोसी नहीं था, बस एक धूर्त और शरारती बिज्जू पास ही जंगल में रहता था।
हर रात, जब किसान और उसकी पत्नी दिनभर की मेहनत के बाद आराम करने लगते, तब यह चालाक बिज्जू चुपके से उनके खेतों में आ धमकता। वह धान के हरे-भरे खेतों को उजाड़ देता, सब्जियों को तहस-नहस कर देता और किसान की मेहनत पर पानी फेर देता।
धीरे-धीरे, यह बिज्जू और भी निर्दयी और दुस्साहसी हो गया। उसकी शरारतें अब हद पार करने लगी थीं। किसान का धैर्य अब जवाब दे चुका था। उसने ठान लिया कि अब इस बिज्जू को सबक सिखाना ही होगा।
किसान ने हाथ में एक मोटी लकड़ी ली और कई रातों तक खेतों में छिपकर बिज्जू का इंतज़ार करता रहा। लेकिन वह इतना चालाक था कि हर बार बच निकलता। फिर, किसान ने एक और उपाय सोचा – उसने बिज्जू को पकड़ने के लिए गड्ढे खोदे और उनमें जाल बिछा दिए।
अंततः किसान की मेहनत रंग लाई! एक दिन जब वह खेतों का मुआयना कर रहा था, उसने देखा कि बिज्जू फँस चुका था! किसान ने तुरंत उसे रस्सियों से कसकर बांध दिया और खुशी-खुशी उसे अपने घर ले आया।
जैसे ही वह घर पहुँचा, उसने अपनी पत्नी से कहा,
“आखिरकार मैंने इस शरारती बिज्जू को पकड़ ही लिया! अब तुम इसे ध्यान से देखना। मैं खेतों में काम करने जा रहा हूँ, और जब लौटूंगा, तो इसे पकाकर सूप बनाऊंगा!”
यह कहकर किसान ने बिज्जू को रस्सियों से बांधकर अपने भंडारगृह की छत की कड़ियों से लटका दिया और खेतों की ओर चल पड़ा।
बिज्जू की चालाकी और निर्दयता
बिज्जू बहुत घबराया हुआ था। सूप बनने का विचार ही उसे कंपा रहा था! लेकिन वह इतना आसानी से हार मानने वालों में से नहीं था।
उसने भागने की तरकीब सोचनी शुरू कर दी। मगर उल्टा लटके होने के कारण उसका दिमाग ठीक से काम नहीं कर पा रहा था।
तभी उसने देखा कि भंडारगृह के दरवाजे के पास, किसान की बूढ़ी पत्नी बैठी थी। वह जौ कूट रही थी, उसकी झुर्रियों से भरा चेहरा पसीने से चमक रहा था, और बार-बार वह अपना माथा पोंछ रही थी।
बिज्जू ने नरम, दयनीय आवाज़ में कहा—
“बूढ़ी अम्मा, तुम बहुत थकी लग रही हो! इस उम्र में इतना भारी काम करना सही नहीं। क्या मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ? मेरे हाथ मज़बूत हैं, मैं थोड़ी देर तुम्हारे लिए जौ कूट दूं?”
बूढ़ी औरत भली-भांति जानती थी कि अगर बिज्जू को खोल दिया, तो वह भाग सकता है। उसने सख़्ती से कहा—
“तुम बहुत मीठी बातें कर रहे हो, लेकिन मैं तुम्हें खोल नहीं सकती। अगर तुम भाग गए, तो मेरे पति बहुत नाराज़ होंगे!”
बिज्जू बड़ा ही चालाक था! उसने और भी मासूमियत से कहा—
“अम्मा, तुम्हारा दिल तो बहुत अच्छा है, फिर इतनी कठोर क्यों बन रही हो? मैं सच में नहीं भागूंगा, वादा करता हूँ! जब किसान लौटेगा, तो मैं दोबारा खुद को बंधवा लूंगा। देखो, यह रस्सी कितनी कसकर बंधी है, मेरे पैर दुख रहे हैं। बस थोड़ी देर के लिए मुझे नीचे उतार दो!”
बूढ़ी औरत दिल की साफ़ और भोली थी। उसे लगा कि एक बेचारा जानवर इतना झूठ क्यों बोलेगा?
उसने बिज्जू की हालत पर दया खा ली और रस्सी खोल दी।
जैसे ही वह मुक्त हुआ, उसने जौ कूटने वाली मोटी लकड़ी उठाई और एक ही वार में बूढ़ी औरत को ज़मीन पर गिरा दिया!
उसकी निर्दयता यहीं नहीं रुकी—उसने बूढ़ी औरत की हत्या कर दी, उसे काटा और उसी का सूप बना डाला!
इसके बाद बिज्जू किसान के लौटने का इंतज़ार करने लगा, जैसे कुछ हुआ ही न हो…
बिज्जू की धूर्तता और किसान का शोक
सूरज ढलने लगा था। किसान थककर चूर हो चुका था, लेकिन एक सोच उसे खुश कर रही थी—घर जाकर गरमा-गरम बिज्जू का सूप पीने को मिलेगा!
उसे ज़रा भी अंदाजा नहीं था कि पीछे घर में कैसी भयानक घटना हो चुकी थी।
इधर चालाक बिज्जू ने बूढ़ी औरत का रूप धारण कर लिया।
जैसे ही किसान खेत से लौटा और अपने छोटे से घर के आंगन में पहुँचा,
वह बनावटी मुस्कान के साथ दरवाज़े पर खड़ा हो गया और बोला—
“आ गए आप? मैं कब से आपका इंतज़ार कर रही थी! देखिए, मैंने बिज्जू का स्वादिष्ट सूप बना दिया है!”
किसान खुशी से झटपट अपनी फटी पुरानी पुआल की चप्पलें (straw sandals) उतारीं और छोटे से खाने के तख्त पर बैठ गया।
बेचारा किसान यह सोच भी नहीं सकता था कि उसकी पत्नी नहीं, बल्कि वही धूर्त बिज्जू उसकी सेवा कर रहा है!
उसने उतावलेपन से कहा—
“अच्छा! जल्दी से सूप परोस दो!”
जैसे ही किसान ने कटोरा उठाया, बिज्जू ने अपनी असली भयानक शक्ल में वापस आकर ज़ोर से चिल्लाया—
“अरे, अरे! अपनी ही पत्नी का सूप पी रहे हो, बूढ़े? हड्डियाँ रसोई में पड़ी हैं, जाकर देख लो!”
यह सुनते ही किसान का खून जम गया।
लेकिन इससे पहले कि वह कुछ कर पाता, बिज्जू ज़ोर-ज़ोर से हँसते हुए जंगल की ओर भाग निकला।
किसान पहले तो अविश्वास से स्तब्ध रह गया।
लेकिन जब सच्चाई पूरी तरह समझ आई, तो वह जोरों से चीख पड़ा।
वह वहीं ज़मीन पर गिर पड़ा, बेहोश हो गया।
कुछ देर बाद जब उसे होश आया, तो उसकी आँखों से आँसू रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।
वह सीने पर हाथ मारकर विलाप करने लगा—
“अरे भगवान! मेरी अजीज़ पत्नी को इस निर्दयी बिज्जू ने मार डाला! मैं खेत में मेहनत कर रहा था, और यहाँ…यहाँ यह अनर्थ हो गया!”
लेकिन सबसे डरावनी बात यह थी—वह लगभग अपनी ही पत्नी का सूप पीने वाला था!
खरगोश का संकल्प
उसी पहाड़ी पर एक दयालु और चतुर खरगोश भी रहता था।
जब उसने किसान के करुण क्रंदन सुने, तो झटपट दौड़कर उसके पास आया।
“क्या हुआ, बाबा? इतनी दुखी क्यों हो?” खरगोश ने चिंतित होकर पूछा।
किसान ने सुबकते हुए पूरी कहानी सुनाई।
खरगोश ने सुनते ही मुट्ठियाँ भींच लीं और आँखों में गुस्सा भर लिया।
“इस धूर्त बिज्जू ने बहुत गलत किया! अब देखना, मैं इसका ऐसा बदला लूँगा कि वह कभी किसी को छलने की हिम्मत नहीं करेगा!”
यह सुनकर किसान को थोड़ी सांत्वना मिली।
उसने अपने आँसू पोंछे और खरगोश को धन्यवाद दिया।
जब किसान थोड़ा शांत हुआ, तो खरगोश चुपचाप अपने घर चला गया।
अब उसे बिज्जू को सबक सिखाने की योजना बनानी थी।
अगले दिन सुबह का मौसम सुहावना था।
खरगोश बिज्जू की तलाश में निकल पड़ा, लेकिन न तो जंगल में, न पहाड़ियों पर और न ही खेतों में वह कहीं दिखा।
आख़िरकार, वह बिज्जू के मांद में पहुँचा और उसे छिपा हुआ पाया।
दरअसल, बिज्जू डर के मारे बाहर निकलने की हिम्मत ही नहीं कर रहा था।
उसे लगता था कि किसान का क्रोध उस पर टूट पड़ेगा।
खरगोश ने मुस्कान के साथ पुकारा—
“अरे मित्र! इतने सुहाने मौसम में घर के अंदर क्यों छिपे बैठे हो? चलो, पहाड़ियों पर घास काटने चलते हैं!”
बिज्जू को खरगोश पर कोई शक नहीं हुआ।
वह इस प्रस्ताव से बहुत खुश हो गया, क्योंकि वह किसान से दूर जाना चाहता था।
पहली चाल – जलता हुआ घास का बोझ
खरगोश बिज्जू को अपने साथ दूर पहाड़ियों तक ले गया।
वहाँ दोनों ने मिलकर ठीक-ठाक मात्रा में घास काटी और उसे गट्ठरों में बाँध लिया।
फिर दोनों पीठ पर अपनी-अपनी घास का गठ्ठर रखकर घर की ओर चल पड़े।
इस बार खरगोश ने बिज्जू को आगे चलने के लिए कहा।
जैसे ही वे रास्ते में चले, खरगोश ने चुपके से चकमक पत्थर निकाला और बिज्जू की पीठ पर रखी सूखी घास में आग लगा दी।
बिज्जू ने हल्की आवाज़ सुनी और पूछा—
“ये ‘चट-चट‘ जैसी आवाज़ कैसी आ रही है?”
खरगोश ने बिना भाव बदले कहा—
“अरे, यह पहाड़ ही ‘चटचटिया पहाड़ी‘ कहलाता है। इसी कारण यह आवाज़ आ रही होगी!”
कुछ ही देर में आग फैलने लगी और बिज्जू की पीठ पर रखी घास जल उठी।
धुआँ उठा, घास की दरारें चटचटाने लगीं।
बिज्जू फिर बोला—
“अब यह कैसी आवाज़ आ रही है?”
खरगोश ने शांत भाव से जवाब दिया—
“अब हम ‘जलती पहाड़ी‘ पर आ पहुँचे हैं!”
तभी बिज्जू को जलती घास की दुर्गंध आई, और वह तड़प उठा।
“आग! आग!” वह चीखते हुए अपनी मांद की ओर भागा।
खरगोश भी मुस्कुराते हुए उसके पीछे-पीछे गया।
दूसरी चाल – दर्द भरा इलाज
जब खरगोश बिज्जू के मांद में पहुँचा, तो देखा कि वह ज़मीन पर पड़ा कराह रहा था।
उसकी पूरी पीठ झुलस चुकी थी।
खरगोश ने बनावटी सहानुभूति जताई—
“अरे बिचारे! तुम कितने अभागे हो। चलो, मैं तुम्हारे लिए एक दवा बनाता हूँ जो तुम्हें जल्दी ठीक कर देगी!”
बिज्जू झट से तैयार हो गया।
खरगोश भागकर घर गया और मिर्च और खट्टे सॉस को मिलाकर एक लेप तैयार किया।
फिर वह मुस्कुराते हुए वापस लौटा और बोला—
“यह ज़रा तीखा है, लेकिन घाव पर लगते ही असर दिखाएगा!”
बिज्जू ने भरोसा किया और अपनी जलती पीठ पर लगाने के लिए कहा।
जैसे ही खरगोश ने यह लेप लगाया, बिज्जू दर्द से तड़प उठा!
“अरे बाप रे! यह तो आग से भी ज़्यादा जल रहा है!”
बिज्जू जमीन पर इधर-उधर लोटने लगा।
खरगोश चुपचाप मुस्कुरा रहा था।
अब उसे लगने लगा कि किसान की पत्नी का बदला शुरू हो चुका है।
तीसरी चाल – डूबती काठ की नाव
एक महीने बाद, किसी तरह बिज्जू के घाव भर गए।
अब वह फिर से चलने-फिरने लायक हो गया।
खरगोश ने सोचा— अब इसे पूरी तरह खत्म करने का समय आ गया है!
वह बिज्जू से मिलने पहुँचा और कहा—
“अरे मित्र! आज बहुत सुहावना दिन है। क्यों न हम मछली पकड़ने चलें?”
बिज्जू को यह सुझाव बहुत अच्छा लगा।
“वाह! यह तो बड़ा मज़ेदार रहेगा!” उसने ख़ुशी से कहा।
यही खरगोश चाहता था।
वह घर गया और दो नावें बनाईं—
एक मजबूत लकड़ी की और दूसरी मिट्टी की।
अगले दिन वे दोनों नदी किनारे पहुँचे।
खरगोश ने चालाकी से लकड़ी की नाव खुद रखी और मिट्टी की नाव बिज्जू को दे दी।
बिज्जू खुश था—
“वाह! तुम कितने अच्छे मित्र हो, जो मेरे लिए नाव बना दी!”
वह बिना कुछ सोचे-समझे उसमें बैठ गया।
जब दोनों नावें बीच नदी में पहुँची, तो खरगोश ने हंसते हुए कहा—
“चलो, देखें किसकी नाव सबसे तेज़ चलती है!”
दोनों ने मज़े-मज़े में नाव चलानी शुरू कर दी।
पर धीरे-धीरे बिज्जू की नाव पानी में घुलने लगी।
“अरे! मेरी नाव टूट रही है!”
बिज्जू घबराकर चिल्लाया।
खरगोश ने ठहाका लगाया—
“यही तो मैं चाहता था! यह तुम्हारे पापों की सज़ा है! अब तुम डूबने वाले हो!”
बिज्जू गिड़गिड़ाया—
“मुझे बचा लो!”
पर खरगोश ने डाँटकर कहा—
“क्या मेरी निर्दोष बूढ़ी माता को मारते वक़्त तुम्हें दया आई थी?”
फिर उसने अपनी पतवार उठाई और बिज्जू को ज़ोरदार प्रहार किया।
बिज्जू मिट्टी की नाव के साथ पानी में डूब गया।
किसान को न्याय मिला
खरगोश तेज़ी से वापस किनारे आया और किसान को सारी बात बताई।
किसान खुशी से रो पड़ा—
“अब मैं चैन की नींद सो सकूँगा! तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूँगा!”
किसान ने खरगोश को अपने घर में रहने के लिए बुलाया।
इसके बाद वे दोनों मित्र बनकर खुशी-खुशी रहने लगे।
कहानी की सीख
धूर्तता और कपट का अंत बुरा ही होता है।
जो दूसरों के साथ छल करता है, उसे एक दिन अपने कर्मों का फल अवश्य भुगतना पड़ता है।
——- समाप्त ——-
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