डॉक्टर की उपयोगिता (Importance of Doctors and Impact on Society)

डॉक्टर की उपयोगिता केवल रोग का इलाज भर नहीं, जीवन की लौ को आँधी में बचाए रखने की कला भी है; बीमारी जब घर के आँगन में धुंध बिछा देती है, तब डॉक्टर की आश्वस्त आवाज़ बुझते दिए की लौ पर हथेली बन जाती है। अस्पताल का मार्ग वही जानता है जो रात के तीसरे पहर सायरन सुनते हुए किसी अपनों को स्ट्रेचर पर देख चुका हो; वहाँ पहुँचते ही समझ आता है कि डॉक्टर सिर्फ़ ‘पर्चा’ नहीं लिखते, भरोसा भी लिखते हैं। वे लक्षणों के पीछे छिपी कहानी सुनते हैं—खानपान, काम का तनाव, घर का वातावरण, और जेब की दशा तक को ध्यान में रखते हैं ताकि उपचार किताब का नहीं, जीवन का बने। कहावत है—जहाँ रोग, वहाँ उपचार; पर सच यह है कि अच्छा वैद्य रोग नहीं, रोगी को देखता है। प्रारम्भिक जाँच, सटीक निदान और संयमित दवाइयाँ—इन तीन सीढ़ियों से वे मरीज को घबराहट की खाई से निकालकर स्थिर ज़मीन पर ला खड़ा करते हैं। डॉक्टर की उपयोगिता का असल मोल इसी में है कि वे डर को जानकारी में, और असहायता को योजना में बदल देते हैं। वह किसी देवता की मूर्ति नहीं, पर दिन‑रात की साधना से घिसकर चमकता इंसान है; ओपीडी की भीड़, आपातकाल की दौड़‑भाग और परिवार की मजबूरियों के बीच भी वह मुस्कान खोजना सीखता है। समाज में बहुत पेशे जरूरी हैं, पर शरीर की सीमा पर चौकसी रखने का नैतिक पहरा डॉक्टर ही देता है; इसलिए कहा गया—जान है तो जहान है, और जान की निगहबानी का सबसे भरोसेमंद पहरेदार डॉक्टर है।

डॉक्टर की उपयोगिता सबसे पहले प्राथमिक स्वास्थ्य‑देखभाल में दीखती है, जहाँ छोटी‑सी खाँसी से लेकर पुरानी पीठ‑दर्द तक की पहेली सुलझती है और बड़ी बीमारियों का बीज समय रहते पहचान में आ जाता है। पारिवारिक चिकित्सक घर का अनौपचारिक सदस्य होते हैं—वे बच्चे के टीके की तिथि से लेकर दादा की दवाइयों की खुराक तक याद रखते हैं; यहाँ उपचार रसायन का ही नहीं, रिश्ते का भी होता है। रक्तचाप, मधुमेह, थायरॉयड, अस्थमा जैसे दीर्घकालिक रोग दवा जितना अनुशासन भी मांगते हैं; डॉक्टर उस अनुशासन को जीवन‑शैली की भाषा में बदलते हैं—नमक‑शक्कर का संतुलन, रोज़ की सैर, नींद की स्वच्छता, स्क्रीन‑समय की मर्यादा। गाँवों में उपस्वास्थ्य केन्द्र सीमित साधनों में भी बड़े काम करते हैं—गर्भवती की जाँच, शिशु का वज़न, आयरन‑कैल्शियम, कीड़े की दवा, और टीबी की जाँच तक; डॉक्टर के मार्गदर्शन से एएनएम, आशा और आँगनवाड़ी मिलकर स्वास्थ्य की पहली दीवार खड़ी करते हैं। ‘बचाव ही इलाज’ किसी पोस्टर का नारा नहीं, डॉक्टर की रोज़ की नीति है—हाथ धोना, सुरक्षित पानी, स्वच्छ शौचालय, और तंबाकू‑निषेध; इन चार उपायों से अस्पताल का आधा बोझ घट जाता है। अच्छी प्राथमिक चिकित्सा गरीब को कर्ज से और अमीर को अनावश्यक जांच से बचाती है; समाज का समग्र स्वास्थ्य यहीं से शुरू होता है। जब शुरुआती चौकी मज़बूत होती है, तो बड़े अस्पतालों पर दबाव घटता है और हर मरीज को समय पर, संतुलित ध्यान मिलता है; यही डॉक्टर की उपयोगिता का पहला और अनिवार्य अध्याय है।

आपातकाल में डॉक्टर का कौशल समय की धारा मोड़ देता है—हृदयाघात, स्ट्रोक, सड़क‑दुर्घटना, साँप‑काटना, प्रसव‑जटिलता, दमा का तीव्र दौरा—इन सबमें ‘गोल्डन ऑवर’ जीवन और मृत्यु के बीच निर्णायक पुल बनती है। डॉक्टर ईसीजी, पल्स‑ऑक्सीमीटर, बीपी‑मॉनिटर जैसे सरल औज़ारों से मिनटों में दिशा तय करते हैं—किसे थ्रोम्बोलाइसिस चाहिए, किसे रक्तस्राव रोकना, किसे तरल देना, किसे तत्काल रेफरल। ग्रामीण क्षेत्र में साधन कम हों तो भी वे ‘जुगाड़’ नहीं, ‘प्राथमिकता’ अपनाते हैं—वायुमार्ग, श्वसन, रक्तसंचार की शृंखला को सुरक्षित करते हैं और एम्बुलेंस व रेफरल केन्द्र से समन्वय साधते हैं। शहरी अस्पतालों में बहु‑विषयक टीम—आपात‑चिकित्सक, सर्जन, एनेस्थेटिस्ट, नर्स, लैब और रेडियोलॉजी—डॉक्टर के संकेत पर एक स्वर में काम करती है; कुछ सेकंड की चूक बड़े नुकसान में बदल सकती है, इसलिए प्रशिक्षण और प्रोटोकॉल यहाँ जीवनरेखा हैं। प्रसव कक्ष में वे माँ‑बच्चे दोनों की नब्ज़ संभालते हैं; रक्तस्राव रोकना, नवजात का तापमान और श्वास सुरक्षित करना, संक्रमण से बचाव—ये सब त्वरित पर शांत निर्णय माँगते हैं। यही नहीं, आपदा‑प्रबंधन—बाढ़, भूकंप, महामारी—में डॉक्टर तंबुओं, स्कूलों और सामुदायिक भवनों को अस्थायी वार्ड बनाकर उपचार की धारा बहाते हैं। कहावत है—संकट मित्र की पहचान कराता है; समाज ने यह पहचान कोरोना‑काल में देखी, जब डॉक्टरों ने पीपीई किट में पसीना बहाकर हमें साँस की डोर थमाए रखी।

डॉक्टर‑मरीज संबंध भरोसे की मिट्टी में उगता है; एक साफ, सहानुभूतिपूर्ण संवाद बहुत‑से भ्रम मिटा देता है और दवा की आधी डोज़ जैसा असर करता है। अच्छे डॉक्टर उपचार तय करते समय मरीज की भाषा, समझ, आर्थिकी और पारिवारिक परिस्थितियों को साथ गिनते हैं—यही ‘व्यक्तिकृत चिकित्सा’ का मानवीय चेहरा है। दवा का समय, संभावित दुष्प्रभाव, वैकल्पिक विकल्प, जाँचों की आवश्यकता, और पुनरीक्षण की तारीख—जब सब कुछ स्पष्ट शब्दों में बताया जाता है, तो अनुपालन बढ़ता है और परिणाम बेहतर आते हैं। सूचित सहमति, गोपनीयता, गरिमापूर्ण व्यवहार, और बिना भेदभाव की सेवा—ये केवल नैतिक ध्वज नहीं, कानूनी और मानवीय मानक भी हैं। जेनरिक दवाओं का विवेकपूर्ण उपयोग, अनावश्यक एंटीबायोटिक से परहेज़, और राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय दिशानिर्देशों का पालन—ये तीन आदतें उपचार को किफायती, सुरक्षित और साक्ष्य‑आधारित बनाती हैं। ‘सेकंड ओपिनियन’ को वे अहं का नहीं, हित का प्रश्न मानते हैं; लक्ष्य मरीज का भला है, श्रेय किसे मिले यह नहीं। शिकायत आए तो स्पष्टीकरण और सुधार, सराहना मिले तो टीम के नाम—यह पेशेवर विनय रोगी‑विश्वास की पूँजी है। ‘मीठी बोली अमृत घोली’—यह कहावत डॉक्टर की वाणी पर अक्षरशः लागू होती है; गरिमा से बोले गए दो वाक्य थके परिवार के लिए आधा उपचार साबित होते हैं, और यही उपचार घर तक चलकर अच्छे परिणाम देता है।

सार्वजनिक स्वास्थ्य के मोर्चे पर डॉक्टर की उपयोगिता एक दृश्यमान परिवर्तन में बदलती है—बीमारी के फैलने से पहले उसके धागे काटना, और फैल जाए तो उसके घेरे को छोटा करना। टीकाकरण अभियान बीमारी का दरवाज़ा बाहर से बंद करता है; डॉक्टर समुदाय की आशंका, अफवाह और मिथकों को धैर्य से स्पष्ट करते हैं ताकि ‘वायरल मैसेज’ नहीं, ‘वैज्ञानिक संदेश’ विजयी हो। पानी‑जनित रोग, मलेरिया‑डेंगू‑चिकनगुनिया, क्षय रोग, कालाजार—इन सबके विरुद्ध घर‑घर समझाने का काम डॉक्टर और उनकी टीम करती है—मच्छर स्रोत नियंत्रण, ओआरएस, नियमित दवा, और सम्पर्क‑अनुगमन। किशोर‑स्वास्थ्य, एनीमिया‑मुक्त भारत, स्कूल हेल्थ प्रोग्राम, तंबाकू‑त्याग—इन कार्यक्रमों में डॉक्टर की सलाह परिवार की आदतों में उतरती है। सड़क‑सुरक्षा, हेलमेट‑सीटबेल्ट, नशा‑मुक्ति—ये भी स्वास्थ्य ही हैं; दुर्घटना और व्यसन अस्पतालों को भर देते हैं, इसलिए डॉक्टर इन पर सार्वजनिक बहस का नेतृत्व करते हैं। ‘एक रुपया बचत, दो रुपये कमाई’—रोग‑निवारण पर हर रुपया भविष्य की चिकित्सा‑लागत को घटाता है; इस आर्थिक बुद्धिमत्ता के सबसे प्रभावी नुमाइंदे डॉक्टर ही हैं। जब समुदाय डॉक्टर को प्रचारक नहीं, सहभागी मानता है, तब स्वास्थ्य ‘व्यक्ति की जिम्मेदारी’ से ‘समाज की संस्कृति’ में बदलने लगता है; यही टिकाऊ कल्याण की असली सीढ़ी है।

वर्तमान युग में डिजिटल स्वास्थ्य ने डॉक्टर की पहुँच को दूरी और दीवारों से आज़ाद कर दिया है; टेली‑परामर्श, ई‑प्रिस्क्रिप्शन, ई‑डायग्नोस्टिक्स और इलेक्ट्रॉनिक स्वास्थ्य अभिलेख से उपचार ‘स्थान‑निर्भर’ नहीं रहा। दूरदराज़ गाँव का मरीज अब मोबाइल पर डॉक्टर से बोल‑सुन सकता है, रिपोर्ट की तस्वीर भेज सकता है, और दवा की सूची घर‑निकट फार्मेसी से प्राप्त कर सकता है; बुज़ुर्गों और दिव्यांगों के लिए यह वरदान है। इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड से पूर्व उपचार, एलर्जी, क्रॉनिक रोग और जाँच‑इतिहास एक जगह दिखते हैं; इससे दवाओं की पुनरावृत्ति और अनावश्यक जाँच घटती है, और आपातकाल में सेकंडों में उचित फैसला होता है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता आधारित निर्णय‑सहायक उपकरण—एक्स‑रे/सीटी की प्राथमिक व्याख्या, डायबिटीज/हृदय जोखिम का स्कोर, दवा‑दुष्प्रभाव की चेतावनी—डॉक्टर की आँख और दिमाग को अतिरिक्त ‘दूसरी राय’ देते हैं; पर अंतिम निर्णय अभी भी चिकित्सकीय विवेक का रहता है। डिजिटल साक्षरता और डेटा‑गोपनीयता यहाँ अनिवार्य हैं; सहमति‑आधारित साझा, मजबूत साइबर सुरक्षा, और सरल भारतीय भाषाओं में इंटरफ़ेस—ये तीन पहरेदार मरीज‑विश्वास बनाए रखते हैं। ‘जहाँ चाह, वहाँ राह’—इच्छा हो तो रोज़ाना 15 मिनट का ई‑पेपर/ऐप‑आधारित स्वास्थ्य‑पठन परिवार की आदत बन सकता है, जो बीमारियों के आने से पहले ही दरवाज़ा बंद कर देता है।

मातृ‑शिशु स्वास्थ्य में डॉक्टर की भूमिका जीवन‑चक्र की सबसे संवेदनशील कड़ी को सुरक्षित करती है—किशोरियों का पोषण, विवाह‑पूर्व परामर्श, गर्भधारण की तैयारी, प्रसव‑पूर्व जाँच, सुरक्षित प्रसव और स्तनपान तक। आयरन‑फोलिक एसिड, टीडैप/टीटी, अल्ट्रासाउंड‑आधारित निगरानी, उच्च‑जोखिम की पहचान और समय पर रेफरल—ये कदम मातृ‑मृत्यु को घटाते हैं और शिशु के आरम्भिक हजार दिनों को मजबूत बनाते हैं। नवजात पुनर्जीवन, कंगारू मदर केयर, जन्म के साथ ही टीकाकरण, और स्तनपान परामर्श—इनसे संक्रमण, कुपोषण और विकास‑विलंब कम होते हैं। किशोर लड़के‑लड़कियों के लिए डॉक्टर मासिक धर्म स्वच्छता, शारीरिक परिवर्तन, ऑनलाइन सुरक्षा और मानसिक स्वास्थ्य पर सहज भाषा में संवाद करते हैं; यहाँ ‘संकोच’ नहीं, ‘संवाद’ इलाज है। यौन‑प्रजनन स्वास्थ्य, पीसीओएस/पीसीओडी, एनीमिया, थैलेसीमिया स्क्रीनिंग—ये विषय परिवार और समाज के सहयोग से ही सुधरते हैं; डॉक्टर इस सहयोग के संयोजक हैं। कहावत है—नया पौधा जितना सँवारो, उतना फल देता है; मातृ‑शिशु‑किशोर स्वास्थ्य पर किया गया निवेश राष्ट्र के भविष्य की ऊँचाई तय करता है, और डॉक्टर इस निवेश के प्रथम प्रबंधक हैं।

जीवन‑शैली से जुड़े रोग आज हर घर तक पहुँच गए हैं—हृदय रोग, स्ट्रोक, कैंसर, क्रॉनिक किडनी, फेफड़े के रोग, और मधुमेह; इन सबका इलाज दवा के साथ व्यवहार‑परिवर्तन है। डॉक्टर जब प्लेट में रंग जोड़ने को कहते हैं—हरी‑पीली‑लाल सब्जियाँ, साबुत अनाज, मौसमी फल—तो यह केवल ‘डाइट चार्ट’ नहीं, धमनियों की सफाई का रोडमैप होता है। वे नमक‑शक्कर‑ट्रांसफैट की सीमाएँ बताते हैं, धूम्रपान‑शराब से दूर रहने को कहते हैं, और ‘150 मिनट/सप्ताह’ की शारीरिक सक्रियता का लक्ष्य देते हैं; यह लक्ष्य लाइफ इंश्योरेंस से बड़ा सुरक्षा कवच साबित होता है। मानसिक स्वास्थ्य पर उनकी संवेदना रोगी को अपराधबोध से निकालती है—उदासी, चिंता, पैनिक, नींद की गड़बड़ी—ये कमजोरी नहीं, चिकित्सा योग्य अवस्थाएँ हैं; काउंसलिंग, सहायक समूह और दवा मिलकर व्यक्ति को सामान्य जीवन में लौटाते हैं। कैंसर स्क्रीनिंग—मुँह, स्तन, गर्भाशय ग्रीवा, कोलोरेक्टल—समय पर जाँच से जान बचाती है; डॉक्टर गलतफहमियों को दूर कर डर की गाँठ खोलते हैं। ‘दवा कम, दिनचर्या ज़्यादा’—यह नुस्खा तभी टिकता है जब डॉक्टर, परिवार और मरीज एक ही पन्ने पर हों; यही त्रिकोण दीर्घकालिक रोग‑प्रबंधन की चाबी है।

पेशेवर नैतिकता और साक्ष्य‑आधारित चिकित्सा डॉक्टर की उपयोगिता को टिकाऊ बनाते हैं। सतत चिकित्सकीय शिक्षा, दिशानिर्देशों का अद्यतन, क्लिनिकल ऑडिट और साथियों से सहकर्मी‑समीक्षा—ये अभ्यास उपचार में ‘अनुभव’ और ‘प्रमाण’ का सेतु बनाते हैं। शोध और नवाचार डॉक्टर के कमरे से प्रयोगशाला और नीति तक फैले हैं—नई दवाएँ, उपकरण, प्रक्रिया‑सुधार, और रोग‑रजिस्ट्रियाँ; हर छोटी सीख अगले मरीज के लिए बेहतर सेवा बन जाती है। संक्रमण‑नियंत्रण के नियम—हाथ स्वच्छता, बाँझ तकनीक, एंटीबायोटिक स्टीवर्डशिप—हॉस्पिटल‑जनित संक्रमण और दवा‑प्रतिरोध को कम करते हैं; यह न केवल मरीज, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के हित में है। जैव‑चिकित्सा अपशिष्ट का वैज्ञानिक निपटान, रेडिएशन सुरक्षा, और रक्त/अंग‑दान की नैतिक प्रक्रिया—ये सब डॉक्टर की दैनिक जिम्मेदारियाँ हैं जिन पर आमतौर पर चर्चा कम होती है, पर समाज का स्वास्थ्य इन्हीं पर टिका है। पारदर्शी शुल्क‑प्रदर्शन, हित‑टकराव का खुलासा, और विज्ञापन‑मर्यादा—ये बातें विश्वास की ईंटें हैं; जब पेशा इन्हें गिनाता है, तब समाज बिना शर्त साथ खड़ा होता है।

सिस्टम‑नेतृत्व में भी डॉक्टर की उपयोगिता निर्विवाद है—अस्पताल‑प्रबंधन, आपूर्ति‑श्रृंखला, मानव संसाधन, और गुणवत्ता‑मानकीकरण; ये ‘पर्दे के पीछे’ के काम प्रतीक्षा‑समय घटाते हैं और सुरक्षा बढ़ाते हैं। आपदा‑चिकित्सा, हीटवेव‑प्रोटोकॉल, वायु‑प्रदूषण पर स्वास्थ्य‑सलाह, और जलवायु‑लचीला अस्पताल—यह नया सार्वजनिक स्वास्थ्य एजेंडा डॉक्टर आगे बढ़ाते हैं। एंटीबायोटिक प्रतिरोध को रोकना वैश्विक चुनौती है; अनावश्यक एंटीबायोटिक न लिखना, मरीज को पूरा कोर्स समझाना, और पशु‑कृषि में विवेकपूर्ण उपयोग पर नीति‑संवाद—ये सब डॉक्टर की कलम को आने वाले कल का संरक्षक बनाते हैं। ‘वन हेल्थ’ ढाँचे में मनुष्य‑पशु‑पर्यावरण तीनों की सेहत जुड़ी है; डॉक्टर जब पशुचिकित्सकों, पर्यावरणविदों और प्रशासकों के साथ मिलकर काम करते हैं, तो ज़ूनोटिक संक्रमणों की कड़ियाँ समय रहते टूटती हैं। शहरों में शहरी स्वास्थ्य क्लीनिक और गाँवों में हेल्थ एंड वेलनेस सेंटर—इनकी रूपरेखा बनाने में चिकित्सा‑नेतृत्व का योगदान ही उन्हें धरातल पर उपयोगी बनाता है।

डॉक्टर की राह आसान नहीं—लंबी शिक्षा, रात‑रात जागना, कानूनी‑प्रशासनिक दबाव, हिंसा का खतरा, और भावनात्मक थकान; फिर भी वे मुस्कान सँभालकर वार्ड में आते हैं ताकि मरीज डर से नहीं, विश्वास से भरे। समाज का कर्तव्य है कि अस्पतालों को सुरक्षित कार्यस्थल बनाए—हिंसा पर शून्य सहिष्णुता, भीड़‑नियंत्रण, स्पष्ट सूचना‑कक्ष, और शिकायत‑निवारण तंत्र; ‘रोष संवाद से’ चूक ‘हिंसा’ न बने, यही सभ्यता है। मीडिया और सोशल प्लेटफॉर्म पर अफ़वाहें उपचार को बिगाड़ती हैं; सत्यापित सूचना ही साझा हो—यह जन‑आचरण का नया नियम होना चाहिए। डॉक्टरों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए सहकर्मी‑समर्थन, परामर्श सुविधा और पर्याप्त विश्राम आवश्यक हैं; थका डॉक्टर न खुद के लिए अच्छा, न मरीज के लिए। उचित पारिश्रमिक, समय पर प्रमोशन, और ग्रामीण सेवा के लिए प्रोत्साहन—ये नीति‑कदम प्रतिभा को टिकाए रखते हैं। ‘धन से पहले जन’—यह आदर्श तभी व्यवहार में टिकता है जब सिस्टम डॉक्टर के साथ खड़ा हो।

चिकित्सा‑शिक्षा और प्रशिक्षु‑मार्गदर्शन डॉक्टर की उपयोगिता को पीढ़ियों तक बढ़ाते हैं। वरिष्ठ चिकित्सक जब इंटर्न और रेजिडेंट को केस‑चर्चा, नैतिक दुविधाओं और संवाद‑कौशल में हाथ‑थामकर चलना सिखाते हैं, तो अस्पताल सीखने का जीवंत परिसर बनता है। बेडसाइड टीचिंग, मॉर्बिडिटी‑मॉर्टेलिटी मीटिंग, सिमुलेशन‑लैब और मानकीकृत मरीज—ये उपकरण ‘सुरक्षित गलती’ का मौका देते हैं ताकि असली वार्ड में गलती की गुंजाइश घटे। संचार‑कौशल पाठ्यक्रम—कठिन समाचार देना, क्रोधित परिजन से बात करना, विविध भाषा‑समूहों से संवाद—यह प्रशिक्षण उतना ही महत्वपूर्ण है जितना सर्जरी का अभ्यास। ग्रामीण पोस्टिंग, सामुदायिक परियोजनाएँ और स्कूल‑हेल्थ शिविर युवा डॉक्टर के भीतर ‘समाज’ बसाते हैं; जब डॉक्टर समाज को देखता है, तब समाज डॉक्टर में ‘अपना’ देखता है। शोध‑वृत्ति और लेखन‑संस्कृति भी यहीं पनपती है—केस‑रिपोर्ट से लेकर नियंत्रित अध्ययन तक; ‘सीखा हुआ’ दस्तावेज़ बनकर ‘सीखाया हुआ’ बनता है, और ज्ञान का चक्र चलता रहता है। यही शिक्षा‑परंपरा पेशे का नैतिक और वैज्ञानिक मान बढ़ाती है।

पलायटिव केयर और पुनर्वास में डॉक्टर की उपयोगिता सबसे मानवीय रूप में सामने आती है—हर बीमारी का अंत ‘ठीक होना’ नहीं, कई बार ‘दर्द कम होना’ और ‘गरिमा से जीना’ होता है। कैंसर या अपक्षयी रोगों में जब उपचार की सीमाएँ दिखती हैं, तब डॉक्टर दर्द‑नियंत्रण, लक्षण‑प्रबंधन, पोषण, मनो‑सहायता और परिवार‑परामर्श से जीवन की गुणवत्ता बचाते हैं। अंत‑जीवन निर्णयों में सूचित सहमति, अग्रिम निर्देश और आध्यात्मिक संवेदना—ये विषय शब्दों से नहीं, उपस्थिति से सिखाए जाते हैं; डॉक्टर वही उपस्थिति बनते हैं। स्ट्रोक/स्पाइनल इंजरी के बाद फिजियो‑ऑक्यूपेशनल थेरेपी के साथ चिकित्सा‑नेतृत्व मरीज को निर्भरता से स्वतंत्रता की तरफ ले जाता है; छोटे‑छोटे लक्ष्य—कप पकड़ना, कुछ कदम चलना, सीढ़ी चढ़ना—जीत की परिभाषा बनते हैं। ‘दया’ यहाँ ‘निर्णय’ भी है—अनावश्यक जाँच/प्रक्रिया टालना, दर्द की दवा देने में कंजूसी न करना, और परिवार को थकावट से बचाना। यही वह अध्याय है जहाँ डॉक्टर विज्ञान और करुणा का सबसे संतुलित चेहरा दिखाते हैं।

समाज में डॉक्टर की उपयोगिता तब और निखरती है जब नागरिक अपनी भूमिका समझते हैं—समय पर अस्पताल पहुँचना, पुरानी रिपोर्ट साथ रखना, दवा समय पर लेना, और फॉलो‑अप न छोड़ना; ‘मरीज और डॉक्टर की जोड़ी’ ही इलाज है। एंटीबायोटिक स्व‑उपयोग से बचना, अधूरा कोर्स न छोड़ना, वैक्सीन से डरना नहीं, और झोलाछाप से दूरी—ये चार नियम अस्पताल की भीड़ तथा जेब के बोझ दोनों घटाते हैं। स्वास्थ्य बीमा या सरकारी योजनाओं की जानकारी रखना, आपात‑नंबर और निकटतम सुविधा की सूची बनाना—ये घर की प्राथमिक चिकित्सा‑तैयारी हैं। रक्त/अंग‑दान की इच्छा पंजीकृत करना और सड़क‑दुर्घटना में ‘गुड समैरिटन’ बनना—ये सामाजिक साहस डॉक्टर की मेहनत को सार्थक करते हैं। ‘कम बोलो, ज़्यादा करो’—संस्कृति के इस सरल मंत्र से अस्पताल के गलियारे भी शांत और व्यवस्थित रहते हैं। जब नागरिक सहयोग करता है, तो डॉक्टर की ऊर्जा ‘काग़ज़ी उलझन’ में नहीं, मरीज पर खर्च होती है; परिणाम बेहतर आते हैं, लागत घटती है, और विश्वास बढ़ता है।

अंततः, डॉक्टर की उपयोगिता का सार यही है कि वे जीवन को दिनों से नहीं, दिनों को जीवन से भरते हैं। स्टेथोस्कोप उनके कान में है, पर दिल उनकी हथेली में; पर्चे पर दवा लिखते हैं, पर पंक्ति में उम्मीद। स्वस्थ भारत का रास्ता अस्पतालों की ऊँची इमारतों से नहीं, डॉक्टर और समाज के ऊँचे मानकों से बनता है—सत्य पर आधारित उपचार, करुणा से भरा व्यवहार, और विज्ञान से समर्थ निर्णय। नागरिक का संकल्प सरल हो—रोग से पहले रोकथाम, संदेह से पहले परामर्श, और अफ़वाह से पहले तथ्य। जब सिस्टम संसाधन देगा, समाज सम्मान देगा, और डॉक्टर अपनी साधना जारी रखेंगे, तब “डर पर नहीं, डॉक्टर पर भरोसा” हर घर का मंत्र होगा। यही मंत्र हमें संकट से सहकार, बीमारी से सेहत, और अनिश्चितता से आशा की ओर ले जाएगा; और तब सचमुच कहा जा सकेगा—जन का पहरेदार वही है जो जन की साँस की रखवाली करे, और वह है—डॉक्टर।

अस्वीकरण (Disclaimer):
यह निबंध केवल शैक्षणिक संदर्भ और प्रेरणा हेतु प्रस्तुत किया गया है। पाठकों/विद्यार्थियों को सलाह दी जाती है कि वे इसे शब्दशः परीक्षा या प्रतियोगिताओं में न लिखें। इसकी भाषा, संरचना और विषयवस्तु को समझकर अपने शब्दों में निबंध तैयार करें। परीक्षा अथवा गृहकार्य करते समय शिक्षक की सलाह और दिशा-निर्देशों का पालन अवश्य करें।

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