पक्षी की आत्मकथा (Autobiography of a Bird Essay)

जन्म मेरी आँखों के सामने नहीं, पत्तों की ओट में हुआ; आम के पेड़ की जर्जर डाल पर सूखे तिनकों, कपास और माँ की धड़कनों से बुना एक छोटा-सा घर—यही मेरा संसार था। पहली बार जब पलकें खोलीं, ऊपर नीला असीम गुम्बद था, और नीचे धरती चुपचाप मुस्कुरा रही थी; हवा के झोंके में घोंसला झूलता तो लगता कोई लोरी गा रहा हो। माँ चोंच में दाना, पिता चौकन्नी आँखों से पहरा—उनके बीच मैं और मेरे भाई‑बहन मूँग के दाने जैसे; भूख लगती तो चहचहाहट बढ़ जाती, और दुनिया हमारी चीं‑चीं से भर उठती। धीरे‑धीरे पंखों में पर आए, देह में ताप आया; माँ ने सिखाया—“उड़ना सिर उठाने से पहले दिल उठाने का काम है।” पहले फड़फड़ाहट, फिर हिम्मत, फिर आसमान का पहला घूंट—उसी क्षण समझ आया कि स्वतंत्रता क्या होती है; जैसे किसी ने बाँहें फैलाकर कहा हो—आओ, अपनी रफ़्तार खुद चुनो। उस दिन सूरज हम पर नहीं, हम सूरज पर टिके थे; पेड़ों के साए, खेतों की मेड़ें, तालाब की चमक—सब खिलौने की तरह दिख रहे थे। वही दिन मेरी पहचान बना—मैं पंछी हूँ, आकाश मेरा रास्ता है, हवा मेरी साथी और पेड़ मेरे सराय। ‘जैसी हवा, वैसी नाव’—यह कहावत तब से मेरे दिल पर लिखी है; जब हवा अनुकूल होती है, तो छोटी सी चोंच भी बादलों से बात कर लेती है।

हमारा जीवन घड़ी की सुइयों नहीं, मौसम की धुन से चलता है; बसंत में पेड़ कोंपलों की चूड़ी पहनते हैं, और हम राग मल्हार की तरह टहनी‑टहनी पर बिखर जाते हैं। गर्मियों में नदी नंगे पाँव चलती है, तब हम छाँह तलाशते हैं; सुबह का दाना, दोपहर की झपकी, संध्या की सभा—यही दिनचर्या। बारिश का पहला कतरा जब चोंच पर गिरता है, तो रग‑रग में गाना उतर आता है; मिट्टी की सोंधी गंध हमारी नसों में संगीत बनकर दौड़ती है। शरद में आकाश साफ होता है, तब दूर‑दूर के मेहमान आते दिखते हैं—परिंदों की कतारें, त्रिकोण की शक्ल में—जिन्हें मनुष्य ‘प्रवासी पक्षी’ कहता है; वे हज़ारों मील उड़ते हैं, तटों पर ठहरते हैं, और फिर लौट जाते हैं—जैसे धरती ने अपने धड़कते नक्शे हवा में बना दिए हों। तब समझ आता है कि उड़ान केवल फुरसत नहीं, भूगोल है; जहाँ भोजन, सुरक्षा और घर मिले, वहीं मौसम का पड़ाव बनता है। ‘चलते पानी में जान’—हमारी जाति भी चलने से ही जिंदा रहती है; जो रुक गया, वह किसी बिल्ली की आँखों में कैद हो गया। इसलिए हर सुबह एक नयी दिशा, हर शाम एक नया अनुभव; जीवन का यह मेला बिना टिकट का है, पर नियम सख्त—सचेत रहो, समूह में उड़ो, और अनजान खतरे पर चुप नहीं, इशारा करो।

घोंसला हमारा घर है, पर घर की परिभाषा लकड़ी नहीं—विश्वास है। तिनका‑तिनका जोड़ना, धागों में सपने गूँथना, और आँधी में भी उसे बचाए रखना—यही हमारी पारिवारिक शिक्षा है; माँ सिखाती है कि मजबूत घोंसला ऊँचा नहीं, सही जगह पर होना चाहिए। बारिश सीधे आने लगे तो पत्तों की ढाल बदलनी पड़ती है; ‘जैसा देश, वैसा भेष’—हम भी टहनियों के नक्शे पढ़ना सीखते हैं। शिकारियों के दाँव समय के साथ बदलते हैं—कौआ चालाक है, बिल्ली मौन, साँप धैर्यशील; परिंदा उनकी चाल पढ़ ले तो आधी लड़ाई जीत लेता है। बच्चे जब अंडे से निकलते हैं, हम दोनों बारी‑बारी से दाना लाते हैं; बच्चे केवल भूख नहीं, आश्चर्य भी होते हैं—हर आवाज़, हर रंग, हर चमक उन्हें दुनिया का पहला परिचय देती है। जब वे फुदकते‑फुदकते टहनी से छोर तक पहुँचते हैं, तो दिल काँपता है; पर छोड़ना पड़ता है—‘जो चूजा घोंसले में चिपका रहा, वह उड़ना भूल गया’। यही प्रकृति का पाठ है—मोह हो, पर बंधन न हो; स्नेह हो, पर स्वाधीनता बड़ी रहे। संध्या घिरती है, हम सब साथ बैठते हैं—एक छोटी सभा, जहाँ दिन की सीखें साझा होती हैं; कौन‑सी दिशा सुरक्षित, कहाँ बच्चे फँसते‑फँसते बचे, किस खेत में दाना भरपूर—यह साझा ज्ञान ही समूह की ढाल बनता है।

शहर से हमारा रिश्ता मीठा‑कड़वा है; यहाँ छज्जे हैं, रसगुल्लों की मिठास है, रसोई की खुशबू है, पर काँच‑कंक्रीट की दुनिया में घोंसले की जगह कम है। पुराने मकानों की झिर्रियाँ, कच्ची दीवारों की सांसे, और खपरैल की गुफाएँ—ये सब हमारे घर थे; अब चिकनी दीवारें, बंद खिड़कियाँ और एसी की ठंडी सांसें हमें बाहर रखती हैं। कई शहरों में गौरैया मेरे जैसी बहन धीरे‑धीरे कम हुई; वैज्ञानिक कहते हैं—खाद्य‑श्रृंखला बदल गई, कीट कम हुए, धूल‑स्नान की जगह मिट्टी ढकी, और शिकारी पक्षी बढ़े। कंक्रीट‑जंगल में बच्चे के पहले पंद्रह दिनों के लिए कीट नहीं मिलते, तो उसका पेट खाली रह जाता है; हम पालक हैं, चमत्कारी नहीं। फिर भी उम्मीद है—कई घरों में लोग मिट्टी के घोंसला‑डिब्बे टाँगते हैं, बालकनी में देशी पौधे लगाते हैं, पानी की छोटी थाली रखते हैं; इतनी‑सी दया हमारी दुनिया में बड़ी राहत बनती है। ‘दाने‑दाने पर लिखा’—यह कहावत यहाँ शाब्दिक हो जाती है; एक‑एक दाना, एक‑एक बूंद हमें मौसम पार करा देती है। जब बच्चे खिड़की पर बैठकर किलकारियाँ भरते हैं और दादी चावल फेंकती हैं, तो लगता है मनुष्यता अभी भी अपनी धड़कन सँभाले है; बस, पिंजरा नहीं—आज़ादी की हवा चाहिए।

गाँवों में हमारी सुबह सुहानी है—खेतों के किनारे जंगली झाड़ियाँ, पशुओं के बाड़े, और धान‑गेहूँ की मेड़ें; यहाँ प्रकृति और मनुष्य एक‑दूसरे से बातचीत करते हैं। कटाई के समय दाने बिखरते हैं, तो हमारे झुंड उतर आते हैं; किसान मुस्कुरा देता है—‘ले भाई, मेहमान आए हैं’। पर जब कीटनाशक बेधड़क बरसे, तो कीड़े भी कम, हम भी कम; जहर खेत के कीट में जाता है, फिर हमारी चोंच में, और धीरे‑धीरे नसों में; यह धीमी आँच हमें दिखाई नहीं देती, पर असर पक्का करती है। तालाब सूखें तो जलपक्षी रोएँ, पेड़ कटें तो घोंसले विधवा हों; एक की हानि, सबकी पीड़ा। अच्छा होता है जब गाँव के स्कूलों में बच्चे पेड़ लगाते हैं, तालाब का किनारा साफ करते हैं, और हमारे लिए जल‑थाल रखते हैं; हम भी सीखते हैं—मनुष्य का साथ दूर का नहीं, घर‑आँगन का है। हरित‑पंचांग पर ‘विश्व प्रवासी पक्षी दिवस’ लिखा है; उस दिन लोग शहरों को पक्षी‑मित्र बनाने की बात करते हैं—खुले आसमान की गलियाँ, बिना काँच वाली जगहें, और तारों पर कवर—ये छोटे बदलाव हमारी बड़ी सुरक्षा हैं। ‘बूँद‑बूँद से सागर’—एक‑एक घर, एक‑एक स्कूल ऐसा करे तो पूरी बस्ती हमारे गीतों से भर सकती है।

हवा हमारा रास्ता है, पर हर हवा दोस्त नहीं; तूफान जब भूख की तरह आता है, तो ताकत नहीं, तरकीब काम आती है। लंबी उड़ानों में हम ‘V’ आकार में उड़ते हैं—आगे वाला हवा काटता है, पीछे वालों का बोझ हल्का होता है; थकान बँटती है, रफ्तार बराबर रहती है। यह हमारा प्राकृतिक गणित है—टीमवर्क का अदृश्य सूत्र; मनुष्य इसे ‘एयरोडायनामिक्स’ कहता है, हम ‘साथ उड़ो, साथ उतरोगे’। प्रवासी पक्षी तो महाद्वीप‑दर‑महाद्वीप यात्रा करते हैं—टुंड्रा से उष्णकटिबंध, पहाड़ से दलदल—रास्ते में ठहराव, भोजन, पानी, सुरक्षित नीड—सब की जरूरत; एक भी कड़ी टूटी तो जीवन‑यात्रा अधूरी। जब किसी दलदल पर इमारत उगती है या बिजली की लाइनें बिना सोचे चीर देती हैं, तो हमारी कतारें टूटती हैं; आसमान में भीड़‑भाड़ उतनी ही खतरनाक है जितनी धरती पर। अच्छा लगता है जब लोग आर्द्रभूमि को ‘रामसर’ जैसी सूचियों में बचाते हैं, किनारों को प्राकृतिक रखते हैं, और उजली रातों में रोशनी कम करते हैं ताकि हमारे सितारे हमें राह दिखा सकें। उड़ान केवल पंखों का नहीं, संकेतों का भी विज्ञान है; सितारे, चुंबकीय रेखाएँ, नदी की मोड़ें—सब मिलकर नक्शा बनाते हैं। हम तो बस कहते हैं—‘रास्ता वही, जो लौटाए’; घर वही है जहाँ अगली बसंत में हमारी स्मृतियाँ उगती हैं।

मनुष्य से हमारा रिश्ता जटिल है—कुछ लोग हमारी तस्वीर खींचते हैं, कुछ दाना डालते हैं, और कुछ पिंजरे टाँग देते हैं। पिंजरा दिखने में चमकदार है—पीतल का, काँच का, रंगीन खिलौनों से भरा; पर वहाँ हवा की गंध नहीं, आकाश की खाल नहीं, बारिश की थपकी नहीं; वहाँ गीत भी कैदी हो जाता है। कई बार बच्चे हँसते हैं, हम भी हँसते दिखते हैं; पर सच कहें तो ‘हँसी के पीछे हिचक’ होती है—उड़ान न छूटे, यही मनुहार। यदि कभी पिंजरे में रहे साथी का द्वार खुलता है, तो वह पहले चौंकता है, फिर धड़कता है, फिर उड़ता नहीं—क्योंकि मांसपेशियों से पहले यादें जंग खा जाती हैं। इसलिए हमारी विनती है—प्यार बाँधता नहीं, संभालता है; दाना दीजिए, पानी रखिए, पर पंखों को मत बाँधिए। जो परिंदे लौटते हैं, वे आपकी चौखट नहीं भूलते; ऋतु बदलेगी, हम आएँगे, गीत देंगे और बदले में बस एक मुस्कान माँगेंगे। ‘जहाँ प्रेम, वहाँ नेह’—यह नेह बंधन से नहीं, अपनापन से जीता जाता है। जंगलों की भाषा मनुष्य भूल रहा है; चलिए, इसे मिलकर फिर सीखें—चिड़िया की चीं‑चीं, मैना की बक‑बक, कोयल का बोल और बयाल की सिलाई—इन सबमें दुनिया की पहली कविताएँ छिपी हैं।

आधुनिक शहरों ने एक नई चुनौती दी—काँच की दीवारें और रोशनी की नदियाँ। पारदर्शी शीशे हमें आकाश का भ्रम देते हैं; कई साथी उससे टकराकर गिर जाते हैं—ना कोई शिकारी, ना कोई तूफान—बस ‘अदृश्य दीवार’। रात की तेज रोशनी हमारे सितारे धो देती है; दिशाएँ धुँधली पड़ती हैं, थकान बढ़ती है। पर जहाँ लोग खिड़कियों पर चिड़िया‑स्टिकर लगाते हैं, पर्दे खींचते हैं, या ग्लास पर रेखाएँ बनाते हैं, वहाँ टकराव घटता है। खुली तारों पर कवर, पंखों‑दोस्त डक्ट, और छतों पर हरियाली—ये छोटी‑छोटी तरकीबें हमारे लिए जीवन‑रेखा हैं। बच्चों को जब स्कूल में ‘पक्षी‑मित्र शहर’ पढ़ाया जाता है, तब बदलाव तेज होता है; छतों पर वर्षा‑जल, देसी पौधे, और मिट्टी के कटोरे—इनसे गर्म दिनों में भी राहत मिलती है। ‘साझी जगहें, पक्षी‑मित्र बस्तियाँ’—यह भविष्य का मंत्र है; जब शहर हमारे गीत सुनने लगेंगे, तो वे खुद हल्के हो जाएँगे—धूल भी, ध्वनि भी। कैमरे भर नहीं, आँखें भी सीखें—देखना, पहचानना, और बात फैलाना; यही नागरिक विज्ञान है जिसमें लोग हमारी उपस्थिति दर्ज करते हैं और शोधकर्ता उससे सीख बुनते हैं। हम तो बस इतना कहते हैं—आसमाँ सबका है; थोड़ी जगह हमें भी।

कभी‑कभी लोग पूछते हैं—तुम्हारा सबसे बड़ा सपना? हम मुस्कुरा कर कहते हैं—“सुरक्षित घोंसला और खुला आसमान।” भोजन हम ढूँढ़ लेते हैं, प्यास बुझा लेते हैं; पर घोंसले की सुरक्षा और आकाश की खुलनापन इंसान के हाथ में भी है। पेड़ लगाना, पुराने पेड़ों को बचाना, जल‑स्रोत साफ रखना, कीटनाशक समझदारी से उपयोग करना, और पालतू बिल्लियों को घोंसला‑मौसम में बाहर न छोड़ना—ये पाँच काम हमारे लिए जीवनदान हैं। शहरों में ‘स्पैरो‑डे’ पर जो बच्चे घोंसला‑बॉक्स टाँगते हैं, वे कल के जिम्मेदार नागरिक हैं; उनके हाथों में केवल कार्डबोर्ड नहीं, हमारी आने वाली पीढ़ियों का भरोसा है। यदि हर मोहल्ला एक पेड़‑मित्र और पक्षी‑मित्र बने, तो सुबहें फिर से चहकेंगी; और हम बदले में वही करेंगे जो हमारी परंपरा है—कीट खाकर किसानों की फसल बचाएँगे, बीज फैलाकर जंगल उगाएँगे, और गाकर मनुष्य के दिलों का तनाव कम करेंगे। ‘लेन‑देन से बढ़कर, नेह‑देन’—यही हमारा सामाजिक अनुबंध है। हम किसी से अधिक नहीं माँगते; बस इतना कि जो आसमान हमें मिला है, वह बचा रहे—ताकि हमारी और आपकी आने वाली पीढ़ियाँ एक‑दूसरे की आवाज़ पहचान सकें।

अंत में, मेरी आत्मकथा का सार एक पंख में समाया है—उड़ना केवल ऊपर उठना नहीं, सही दिशा में हल्का होना भी है। हमने सीखा कि साथ उड़ोगे तो दूर जाओगे, अकेले उड़ोगे तो जल्दी थकोगे; कि घोंसला जितना अपने बच्चों का है, उतना ही हवा और पेड़ का भी; कि प्रेम पिंजरे की चाबी नहीं, आकाश का नक्शा है। अगर कभी खिड़की पर बैठा कोई छोटा‑सा मेहमान दिखे, उसकी आँखों में झाँकना; वहाँ तुम्हारी दुनिया का भी प्रतिफलन होगा—मुक्ति का, संगीत का, और सहजीवन का। हम पंछी हैं—न बड़े, न छोटे; बस धड़कनों के साथ उड़ते कुछ रंग। हमारे लिए थोड़ा दाना, थोड़ा पानी, थोड़ा पेड़; बदले में हम दे देंगे एक सुबह, जो तुम्हें हर दिन नया कर दे। “आसमाँ सबका”—यह पंक्ति बस कवि की नहीं, धरती की भी है; और जब धरती मुस्कुराती है, तो उड़ान अपने‑आप कविता बन जाती है।

अस्वीकरण (Disclaimer):
यह निबंध केवल शैक्षणिक संदर्भ और प्रेरणा हेतु प्रस्तुत किया गया है। पाठकों/विद्यार्थियों को सलाह दी जाती है कि वे इसे शब्दशः परीक्षा या प्रतियोगिताओं में न लिखें। इसकी भाषा, संरचना और विषयवस्तु को समझकर अपने शब्दों में निबंध तैयार करें। परीक्षा अथवा गृहकार्य करते समय शिक्षक की सलाह और दिशा-निर्देशों का पालन अवश्य करें।

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