बंदर और केकड़ा की तकरार (The Quarrel of the Monkey and the Crab)

(यह कहानी एक प्रसिद्ध जापानी लोककथा पर आधारित है, जिसे भावनात्मक गहराई, सांस्कृतिक जुड़ाव और सरल हिंदी में फिर से रचा गया है। यह कथा हमें धोखे, लालच और न्याय की ताकत का संदेश देती है, जहाँ एक मासूम केकड़ा अपने पिता की मृत्यु का बदला धैर्य, बुद्धिमानी और सच्चे साथियों की मदद से लेता है। इस लोककथा की शुरुआत मासूम दोस्ती से होती है और अंत होता है बुराई पर न्याय की विजय से।)

बहुत समय पहले की बात है। जापान की एक खुशनुमा शरद ऋतु की दोपहर थी। सूरज की गर्माहट में न तो चुभन थी और न ही तपन — बस एक हल्की सी नरमी, जैसे कोई बुज़ुर्ग दादी माथे पर हाथ रखकर कहे, “बेटा, सब ठीक रहेगा।”

ऐसी ही सुहानी घड़ी में, एक गुलाबी चेहरे वाला शरारती बंदर और एक पीला-सुनहरी खोल वाला मासूम केकड़ा नदी के किनारे उछलते-कूदते, खेलते हुए घूम रहे थे।

खेलते-खेलते दोनों कुछ ढूंढ़ने लगे — और तभी केकड़े को एक ताज़ा चावल का लड्डू मिला और बंदर को मिला एक खट्टे टिकोरे (खजूर जैसे फल) का बीज

केकड़ा अपनी खुशी छिपा नहीं पाया। उसने लड्डू दिखाते हुए चहक कर कहा —
“देखो, क्या शानदार चीज़ मिली है मुझे!”

बंदर ने भी उछलते हुए बीज दिखाया और बोला —
“मैंने भी कुछ बढ़िया पाया है, देखो ये टिकोरे का बीज!”

बंदर को वैसे भी टिकोरे का फल बेहद पसंद था, लेकिन जो बीज उसके हाथ लगा था, वो तो पत्थर जैसा सख़्त और न खाने लायक था। ऐसे में जब उसने केकड़े के हाथ में लड्डू देखा, उसकी आँखों में लालच चमकने लगा।

उसे लगा कि किसी न किसी तरह से ये स्वादिष्ट लड्डू केकड़े से हथिया लेना चाहिए

बंदर ने अपने मुंह पर मासूमियत का नकाब चढ़ाया और बोला —
“तू कितना नासमझ है! अभी-अभी का सोचता है, भविष्य का कुछ नहीं देखता। ये लड्डू तो तू अभी खा जाएगा, खत्म हो जाएगा। लेकिन ये जो बीज है न, इसे अगर तू ज़मीन में बो देगा, तो कुछ ही सालों में एक बड़ा सा पेड़ बन जाएगा, और हर साल टिकोरे से लद जाएगा।”

वो थोड़ा रुककर मुस्कुराया, जैसे कोई बाबा कथा सुनाने जा रहा हो —
“बस सोचो! पेड़ पर पीले-पीले, रसीले फल लटक रहे होंगे। अगर तू माने तो ये बीज तेरे लिए सौदा नंबर एक है। पर तू माने या न माने, मैं तो खुद ही बो दूँगा। पर जब फल उगेंगे, तब तुझे पछताना पड़ेगा।”

अब बेचारा केकड़ा तो भोलाभाला जीव था। उसे बंदर की चिकनी-चुपड़ी बातों में सच्चाई और भविष्य का सपना दिखा। उसने सोच-विचार किया और बंदर की चाल में फँस गया

“ठीक है, ले ले चावल का लड्डू, और दे दे मुझे ये बीज ,” उसने दिल पर पत्थर रखकर कहा।

बंदर के चेहरे पर शिकारी सी मुस्कान फैल गई। वो तो बस इसी मौके की ताक में था। उसने झट से लड्डू झपटकर खा डाला, मानो कभी भूखा हो। और जैसे-तैसे बीज केकड़े को पकड़ाया — जैसे किसी भिखारी को सिक्का फेंक दिया हो।

असल में वो तो बीज भी नहीं देना चाहता था, पर उसे डर था कि कहीं केकड़ा अपनी तेज़ धार वाले पंजों से उसे न काट ले!

बंदर हँसते हुए जंगल की ओर निकल पड़ा और केकड़ा अपने छोटे से पत्थरों वाले घर की ओर। जैसे ही वह घर पहुँचा, उसने वैसा ही किया जैसा बंदर ने बताया था — बीज को ज़मीन में बो दिया, और दिल में उम्मीद का पौधा भी।

कुछ ही महीनों बाद जब वसंत का मौसम आया, केकड़े की आँखें खुशी से चमक उठीं। जिस बीज को उसने प्यार से मिट्टी में लगाया था, वहाँ से एक नन्हा-सा पौधा सिर उठा रहा था — जैसे कह रहा हो, “मैं हूँ तेरा भरोसे का फल।”

हर साल वह पौधा बड़ा होता गया। उसकी टहनियाँ लंबी हुईं, पत्तियाँ घनी और हरी। और फिर एक दिन, बसंत की एक भोर में — जब हवा में फूलों की खुशबू थी — उस पौधे ने पहली बार फूल दिए

उस साल की शरद ऋतु में, वही पेड़ रसीले टिकोरे से लद गया। हरे-भरे पत्तों के बीच, टिकोरे सोने की गेंदों की तरह चमक रहे थे। जैसे-जैसे वे पकते, उनका रंग नारंगी होता गया — और सुगंध पूरे आँगन में फैल गई।

छोटा केकड़ा रोज़ धूप में बैठकर, घोंघे जैसी आँखें बाहर निकालकर, पेड़ को निहारता और मन-ही-मन कहता —
“वाह! क्या लाजवाब फल होंगे खाने में!”

फिर एक दिन ऐसा आया जब केकड़े को पूरा विश्वास हो गया कि फल पक चुके हैं। वो अब और इंतज़ार नहीं कर सकता था। भूख से उसका मन मचल रहा था। उसने कई बार पेड़ पर चढ़ने की कोशिश की, लेकिन उसके नाजुक पैर पेड़ पर चढ़ने लायक नहीं थे

वो निराश हुआ। उसकी मेहनत थी, उसका सपना था — लेकिन स्वाद उसके हाथ से दूर था

उसी समय उसे याद आया — उसका पुराना साथी बंदर!
“क्यों न उसी से मदद ली जाए? पेड़ों पर चढ़ने में तो उसका कोई मुकाबला नहीं!”

केकड़ा नदी किनारे अपने पत्थरनुमा घर से निकल पड़ा। वह ज़मीन पर फिसलते हुए, पथरीले रास्तों को पार करता हुआ, छायादार जंगल में पहुँचा। वहाँ उसे अपना दोस्त बंदर एक ऊँचे चीड़ के पेड़ पर आराम करते मिला — उसकी पूंछ शाखा से लिपटी हुई थी ताकि नींद में नीचे न गिर जाए।

केकड़े की आवाज़ सुनकर बंदर झट से जाग गया और नीचे उतर आया।

केकड़े ने अपनी बात बताई — कैसे उसकी मेहनत से पेड़ तैयार हुआ, और अब उस पर टिकोरे पक चुके हैं। बंदर ने जब सुना कि वही बीज जो उसने कभी एक लड्डू के बदले दिया था, आज सोने से महंगे फल दे रहा है, तो उसकी लालच की नदियाँ बह निकलीं

बंदर ने बड़ी चालाकी से हामी भर दी
“चिंता मत कर, दोस्त! मैं हूँ न। चलो, मिलकर तुम्हारे फल तोड़ते हैं।”

केकड़ा उसकी बातों पर फिर से भरोसा कर बैठा

जैसे ही वे उस पेड़ के पास पहुँचे, बंदर ने टहनियों पर लदे पके फलों को देखकर अपने मन की खुशी छिपा नहीं सका

बंदर फुर्ती से पेड़ पर चढ़ गया। फिर क्या था — एक के बाद एक, वो सबसे पके, सबसे अच्छे टिकोरे तोड़ता गया और खुद ही खाने लगा। उसके मुँह से रस टपक रहा था, और उसका पेट भरता जा रहा था।

नीचे खड़ा बेचारा केकड़ा बस देखता रह गया

बंदर ने एक भी फल केकड़े को नहीं दिया।
जब सारे अच्छे फल खा चुका, तो उसने सोचा —
“अब इससे पीछा छुड़ाओ!”

बंदर ने सबसे कठोर, कच्चा टिकोर तोड़ा और गुस्से से निशाना साधकर केकड़े के सिर पर दे मारा।

“धड़ाम!” — टिकोरे की चोट सीधे लगी।

केकड़ा दर्द से तड़प उठा। वो नीचे गिरा, लेकिन बंदर यहीं नहीं रुका — उसने एक-एक कर कई कच्चे फल तोड़े और बार-बार केकड़े पर फेंकने लगा। जब तक केकड़े का शरीर घावों से भर नहीं गया और उसका दम नहीं टूट गया, बंदर कायरों की तरह वार करता रहा

और फिर…
पेड़ के नीचे, जहाँ उसने बीज बोया था — वहीँ केकड़ा गिर पड़ा, शांत, निरीह, और लहूलुहान।

बंदर जब समझ गया कि उसने अपने दोस्त की जान ले ली है, तो डर से काँपने लगा। वो चुपचाप जंगल की ओर भाग गया, जैसे कायर भागते हैं — बिना पीछे देखे

जहाँ ये भयानक कांड हुआ था, उसी जगह से थोड़ी दूर पर केकड़े का बेटा अपने दोस्त के साथ खेल रहा था। खेलने के बाद जब वह अपने घर लौट रहा था, तो उसने जो देखा, वो उसकी मासूम आंखों के लिए किसी दुखद स्वप्न से कम नहीं था

उसके पिता — जिनका कवच टूट चुका था, सिर लहूलुहान था और आसपास ज़मीन पर पड़े थे कच्चे टिकोरे, जिनसे उन्हें मारा गया था।

छोटा केकड़ा वहीं बैठ गया और फूट-फूट कर रो पड़ा।

लेकिन कुछ देर बाद उसने अपने आँसू पोंछे और खुद से कहा:
“आंसुओं से कुछ नहीं होगा… अब मेरा फ़र्ज़ है — पिता की हत्या का बदला लेना!”

उसने ध्यान से इधर-उधर देखा। ऊपर पेड़ की ओर देखा — पके हुए फल ग़ायब थे, और नीचे बिखरे थे छिलके और बीज। उसने अनुमान लगाया कि ज़रूर बंदर ने यह सब किया होगा।

उसे तुरंत याद आया — पिता ने कभी उसे एक लड्डू और बीज की कहानी सुनाई थी, जिसमें बंदर की चालाकी का जिक्र था।

अब उसे सब समझ आ गया।
“बंदर की लालच और धोखे ने ही मेरे पिता की जान ली!”

ग़ुस्से में उसका मन हुआ कि अभी जाकर बंदर से मुकाबला करे। लेकिन फिर सोचा —
“नहीं, बंदर बूढ़ा ज़रूर है, पर चालाक और तेज़ है। अकेले मैं उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता।”

फिर वह गया अपने पिता के पुराने मित्र, ‘ओखली बाबू’ (Mr. Mortar) के पास।

आंखों में आँसू लिए, उसने सारी कहानी सुनाई।
“चाचा! आप ही मेरे पिता के दोस्त थे। क्या आप मेरा साथ देंगे?”

ओखली बहुत दुखी हुए। उन्होंने कहा:
“बिलकुल, मैं तुम्हारे साथ हूँ। लेकिन यह काम बहुत समझदारी से करना होगा। बंदर चालाक और बलवान है।”

उन्होंने मधुमक्खी बहन और शहतूत (चेस्टनट) दादा को भी बुलाया, जो पुराने दोस्तों में से थे।

जब उन्होंने बंदर की नीचता और केकड़े की हत्या की कहानी सुनी, तो उनका खून भी खौल उठा।

“हमें न्याय करना ही होगा!” — सबने एक साथ कहा।

उन्होंने देर तक बैठकर एक चालाक योजना बनाई, जिसमें हर किसी की भूमिका तय हुई।

फिर ओखली बाबू छोटे केकड़े के साथ उसके घर लौटे और मिलकर केकड़े के पिता का अंतिम संस्कार किया।
धूप हल्की थी, हवा शांत थी — पर दिल में तूफान उठ चुका था।

उधर बंदर अपनी कुटिया में बैठा खुद को शाबाशी दे रहा था
“वाह बंदर! क्या काम किया है — फल भी खा गया, और उस मूर्ख को मार भी दिया।”

लेकिन मन के किसी कोने में उसे डर था:
“अगर किसी ने देख लिया तो? अगर बदला लिया गया तो?”

इस डर के मारे वह कई दिन बाहर नहीं निकला

फिर एक दिन, उसने खुद को समझाया:
“अरे! कोई नहीं जानता कि मैंने क्या किया है। केकड़ा तो मर चुका है। मरा हुआ जीव बोलेगा नहीं!”

“तो फिर मैं क्यों डरूं? अब बाहर निकलने में क्या बुराई है?”

वह बाहर निकला और धीरे-धीरे केकड़ों की बस्ती के पास घुसपैठिये की तरह छिपते-छिपाते घूमने लगा। वो जानना चाहता था कि लोग उसके बारे में क्या बात कर रहे हैं।

पर उसे कोई चर्चा नहीं सुनाई दी। सब सामान्य सा लग रहा था।

“ये सब तो मूर्ख हैं! इन्हें कुछ पता ही नहीं चला!” — उसने घमंड में कहा।

उसे क्या पता कि यह छल और चुप्पी, केकड़े के बेटे की रणनीति का हिस्सा थी।

छोटे केकड़े ने सबको समझा रखा था कि
“हम बदले की तैयारी कर रहे हैं — लेकिन दिखाना नहीं है कि हमें कुछ पता है।”

बंदर खुश होकर घर लौट आया
अपने आप से बोला —
“अब डरने की कोई ज़रूरत नहीं! मैं तो बच गया!”

उसे यह ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि कयामत की आंधी अब आने ही वाली है

एक दिन दोपहर के वक्त, बंदर अपने घर में आराम से बैठा था कि तभी दरवाजे पर एक संदेशवाहक आया। बंदर को बहुत हैरानी हुई।

वह सोच में पड़ गया —
“अरे! यह कौन हो सकता है?”

संदेशवाहक ने झुककर आदरपूर्वक कहा —
“मुझे मेरे स्वामी, छोटे केकड़े ने भेजा है। उनके पिता की कुछ दिन पहले टिकोरे के पेड़ से गिरकर मृत्यु हो गई थी। आज उनका सातवां दिन है, जो उनकी मृत्यु के बाद पहली बरसी के रूप में मनाया जा रहा है। इस अवसर पर उन्होंने एक श्रद्धांजलि समारोह आयोजित किया है और आपको सादर आमंत्रित किया है, क्योंकि आप उनके पिता के पुराने मित्र रहे हैं।”

बंदर के दिल में खुशी की लहर दौड़ गई। उसे यकीन हो गया कि अब कोई उसे संदिग्ध नहीं समझता। वह भीतर ही भीतर मुस्कुराया।

“वाह! जो किया, वो किसी को पता नहीं चला!”

उसने नाटक करते हुए आँसू भरी आवाज़ में कहा —
“अरे! यह तो बहुत दुखद समाचार है। उनके पिता मेरे परम मित्र थे। हमने एक बार लड्डू और बीज का अद्भुत आदान-प्रदान किया था। उनका जाना बड़ा नुकसान है। मैं जरूर आऊँगा। उन्हें श्रद्धांजलि देना मेरा कर्तव्य है।”

और उसने अपनी आँखों में झूठे आँसू उबाल दिए।

संदेशवाहक ने मन ही मन सोचा —
“अभी तो ये मगरमच्छ के आँसू बहा रहा है, लेकिन जल्द ही सच्चे आँसू बहाएगा!”
बाहर से वह मुस्कुराकर धन्यवाद कहकर चला गया।

बंदर ने अच्छा पहनावा पहना और गंभीर चेहरे के साथ केकड़े के घर की ओर रवाना हुआ
वहाँ पूरा केकड़ा परिवार, रिश्तेदार और मित्र स्वागत के लिए तैयार खड़े थे

कुछ औपचारिक नमस्कार के बाद, उसे एक बड़ी सभा कक्ष में ले जाया गया। वहाँ छोटा केकड़ा उसके सामने आया।
शोक और कृतज्ञता के शब्दों का आदान-प्रदान हुआ, फिर सबने मिलकर एक भव्य भोज किया।

बंदर को ‘विशेष अतिथि’ के रूप में रखा गया, और खूब आवभगत की गई।

भोजन के बाद, छोटे केकड़े ने बंदर से कहा —
“अब कृपया चाय-कक्ष में पधारें और गरम चाय का स्वाद लें।”

बंदर वहाँ गया। लेकिन केकड़ा बाहर चला गया और फिर लौटा ही नहीं।

समय बीतता गया।
बंदर झुंझलाने लगा —
“ये चाय समारोह भी न! कितना लंबा खिंचता है। मुझे तो भूख से ज़्यादा प्यास लग रही है।”

उसने आग पर रखे केतली से गरम पानी निकालने की कोशिश की। जैसे ही उसने अंगारों को हटाया, अचानक—

“ठाँय!”

कुछ ज़ोर से फूटा और सीधा उसकी गर्दन पर जा लगा!

वो था शहतूत दादा (Chestnut) — जो चूल्हे में छिपा हुआ था। उसकी गर्मी और चोट से बंदर चिल्लाता हुआ पीछे हटा।

जैसे ही वह भागने लगा, बाहर छिपी मधुमक्खी बहन आई और उसके गाल पर डंक मार दिया!

अब बंदर दर्द से बिलबिला उठा —
गर्दन जल रही थी, चेहरा सूजा हुआ था, और आँखें चकरा रही थीं।

लेकिन भागने की कोशिश जारी थी।

अब बारी थी ओखली बाबू की, जो पहले से छत पर कुछ भारी पत्थरों के साथ छिपे हुए थे।

जैसे ही बंदर गेट के नीचे से गुज़रा,
“धड़ाम!”
ओखली और पत्थर सब उसके सिर पर आ गिरे।

बंदर की हालत गंभीर हो गई।
वह जमीन पर गिर पड़ा, बेहोश और लाचार — अब उसके अंदर बचा था सिर्फ पछतावा।

तभी वहां आया छोटा केकड़ा
उसके पंजे तेज़ थे, दिल मजबूत, और यादें जिंदा।

उसने बंदर के पास जाकर कहा —
“अब याद आया? तुम ही हो जिसने मेरे पिता की हत्या की थी।”

बंदर कराहते हुए बोला —
“तो… तुम… दुश्मन हो?”

“बिलकुल!” — केकड़ा बोला।

बंदर फिर बुदबुदाया —
“गलती… तुम्हारे पिता की थी… मेरी नहीं…”

“अभी भी झूठ? अब मैं तुम्हारा अंतिम झूठ भी ख़त्म करता हूँ!”

और यह कहकर उसने अपने तेज़ पंजों से बंदर का सिर अलग कर दिया।

इस तरह धोखे और लालच से भरा बंदर, अपने कर्मों की सज़ा पा गया
और छोटे केकड़े ने अपने पिता की मौत का बदला लिया — बुद्धिमानी, धैर्य और सच्चे मित्रों के साथ।


सीख:
“यह कहानी सिखाती है कि धोखा देने वाला चाहे जितना भी चालाक क्यों न हो, अंत में उसकी चालाकी उसी पर भारी पड़ती है। जैसे केकड़े ने धैर्य, एकजुटता और बुद्धिमानी से अपने ऊपर हुए अन्याय का बदला लिया — वैसे ही सत्य और न्याय की हमेशा जीत होती है।”

Disclaimer:

The purpose of this translation of story in Hindi is to provide access to the content for Hindi-speaking readers. All rights to the original content remain with its respective author and publisher. This translation is presented solely for educational and informational purposes, and not to infringe on any copyright. If any copyright holder has an objection, they may contact us, and we will take the necessary action.

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