भारतीय किसान का जीवन प्रकृति की गोद में खिलती उस कली की भाँति है, जो धूप, वर्षा और आंधी के बावजूद भी अपनी सुगंध फैलाने से नहीं चूकती। सूरज की पहली किरण के साथ ही वह बिस्तर छोड़ देता है, और अपने पशु-पक्षियों की देखभाल में जुट जाता है। उसका दिन सूरज के साथ आरम्भ होता है और चाँद की चुप्पी में थकान के साथ समाप्त होता है। वह न केवल खेती करता है, बल्कि अपने पशुओं को परिवार के सदस्य की तरह पालता है। वह भूख से पहले अपने बैलों को खिलाता है, और उनके स्वस्थ रहने से उसे सच्ची प्रसन्नता मिलती है। “धरती पुत्र” कहलाने वाला यह किसान केवल अनाज नहीं उगाता, बल्कि देश की आत्मा को भी सींचता है।
किसान की पत्नी उसकी वास्तविक अर्धांगिनी होती है। वह न केवल घर के कामकाज को सँभालती है, बल्कि खेत-खलिहानों में भी उसका कंधे से कंधा मिलाकर साथ देती है। प्रातःकाल जब गाँव में अंधेरा छाया होता है, तब वह झाड़ू-बुहाड़ू से लेकर पशुशाला तक की सफाई में लग जाती है। फिर गोबर से उपले बनाना, चूल्हे में आग जलाना, और अपने पति के लिए सादा लेकिन पोषक भोजन तैयार करना उसके दैनंदिन कार्य होते हैं। दोपहर में जब सूर्य अपने चरम पर होता है, तब वह खेत में पति को भोजन पहुँचाने निकल पड़ती है। यह समर्पण केवल गृहस्थी का नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण में योगदान का प्रतीक है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था, “भारत की आत्मा गाँवों में बसती है।” और उन गाँवों की आत्मा किसान और उसकी स्त्री होती है।
भारतीय किसान श्रम का उपासक है। उसका जीवन श्रम की साधना है और उसकी आत्मा परिश्रम में ही आनंद पाती है। वह विपरीत मौसमों से संघर्ष करता है — धूप की तपिश, बारिश की बौछारें और सर्द हवाएँ उसकी दिनचर्या को नहीं तोड़तीं। बिजली की गर्जना, आंधी की सनसनाहट या तूफान की आशंका भी उसके संकल्प को डिगा नहीं सकती। “जहाँ चाह वहाँ राह” की कहावत उस पर पूरी तरह लागू होती है। उसके हाथों में लगे छाले उसकी मेहनत की गाथा गाते हैं, और उसकी आँखों में बसता है संतोष, क्योंकि वह जानता है कि “कर्म ही पूजा है।” वह कभी शिकायत नहीं करता, क्योंकि वह आत्मनिर्भर है — आत्मगौरव उसका मूल स्वभाव है।
भारतीय किसान का जीवन जितना कठिन है, उसका रहन-सहन उतना ही सादा। वह बांस, फूस और मिट्टी से बने कच्चे मकान में भी उतनी ही खुशी से रहता है, जितना कोई आलीशान बंगले में। उसके खेतों के चारों ओर लहलहाती फसलें उसके लिए बगीचे का काम करती हैं। उसके लिए पंचसितारा होटल की वातानुकूलित सुविधा से अधिक सुकून है अपने घर के आँगन में बहती ठंडी हवा में। वह खाट पर लेटकर ताज़ी हवा में साँस लेना पसंद करता है, न कि एयर-कंडीशनर की कृत्रिम हवा। उसके लिए दाल-रोटी, गुड़ और छाछ से भरा थाली ही राजभोग के समान है। “जैसा अन्न, वैसा मन” — इस सिद्धांत पर वह खरा उतरता है।
भारतीय किसान का धरती से जुड़ाव अत्यंत भावनात्मक है। वह धरती को केवल खेत नहीं, बल्कि माँ के रूप में देखता है। उसे लगता है कि हर बीज बोने के साथ वह धरती माँ की कोख में भविष्य बो रहा है। जब फसल अंकुरित होती है, तो उसकी आँखों में सपनों की चमक दिखाई देती है। वह अन्न के हर दाने को पूज्य मानता है। जैसे एक योगी तपस्या करता है, वैसे ही किसान खेती करता है। उसकी साधना से उत्पन्न फसल केवल खाद्य नहीं, बल्कि श्रद्धा का प्रतीक होती है। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का नारा “जय जवान, जय किसान” इस किसान की महत्ता को देश की नींव के रूप में स्थापित करता है।
किसान सामाजिक जीवन में भी उतना ही दक्ष होता है जितना खेतों में। वह सहकारिता का जीवंत उदाहरण होता है। जब गाँव में कोई पारिवारिक कार्य होता है — शादी, नामकरण या तीज-त्योहार — तब सारे गाँववासी एकजुट होकर उसे उत्सव में बदल देते हैं। कोई पंडाल सजाता है, तो कोई भोजन बनाता है, और कोई स्वागत करता है। यही तो भारतीयता की पहचान है — “एकता में अनेकता।” आज जब शहरी समाज में व्यक्तिगत स्वार्थ बढ़ रहे हैं, तब गाँवों की यह एकता एक प्रेरणा बन सकती है। किसान जानता है कि “बूँद-बूँद से सागर बनता है।” इसी भावना से वह सामूहिक जीवन को अपने हृदय से अपनाता है।
खेती-किसानी ही किसान की वास्तविक पूँजी है। वह उसमें केवल धन नहीं देखता, बल्कि भविष्य की संभावनाएँ भी खोजता है। हरे-भरे खेतों को देखकर उसका चेहरा खिल उठता है। जब हवा में फसलें लहराती हैं, तो वह उसमें अपने परिश्रम की महक महसूस करता है। उसे चिड़ियों की चहचहाहट, बैलों की आवाज़ और मिट्टी की खुशबू जीवन की सबसे मधुर संगीतमाला लगती है। उसके लिए हर फसल उसकी तपस्या का फल होती है। लेकिन कई बार उसे वह लाभ नहीं मिलता, जिसका वह हकदार है। फिर भी वह निराश नहीं होता, क्योंकि उसके पास आशा और संतोष की वह पूँजी है, जो किसी भी संपत्ति से मूल्यवान होती है।
मनोरंजन भी किसान के जीवन का एक हिस्सा है। उसका हँसता-खिलखिलाता चेहरा उसकी सरलता का प्रतीक है। जब गाँव में कोई रामलीला या कथा होती है, तो वह अपने परिवार सहित वहाँ पहुँचता है और आनंद में डूब जाता है। विवाह या त्योहारों पर होने वाले लोकगीत, भजन और नृत्य उसका मानसिक संतुलन बनाए रखते हैं। उसे फिल्मी गीतों या आधुनिक संगीत से अधिक आनंद लोकसंस्कृति की सादगी में मिलता है। “मन चंगा तो कठौती में गंगा” — वह इसी सोच में जीता है। रेडियो पर भी वह उन कार्यक्रमों में रुचि लेता है, जो कृषि से जुड़ी जानकारी देते हैं।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की 70% जनसंख्या प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि पर निर्भर है। यदि किसान स्वस्थ, संपन्न और संतुष्ट रहेगा, तो ही देश प्रगति करेगा। उसकी तकलीफें देश के लिए अभिशाप हैं। “जब खेत रहे सूखा, तब प्यासा हो नगर।” सरकारों के बदलने से स्थिति तभी बदलेगी जब किसानों की भलाई की नीतियाँ ज़मीन पर उतरेंगी। योजनाएँ कागज़ों पर नहीं, खेतों में फसल बनें। यदि किसान पीसता रहा और शहरी समाज उसका श्रेय लेता रहा, तो देश की आत्मा पर चोट लगेगी। “किसान खुशहाल, तो राष्ट्र सशक्त” — यह केवल नारा नहीं, विकास का मूलमंत्र है।
आज के तकनीकी युग में भारतीय किसान के जीवन में कई परिवर्तन आए हैं। आधुनिक मशीनें, जैसे ट्रैक्टर, थ्रेशर, और ड्रिप इरिगेशन सिस्टम ने उसकी मेहनत को थोड़ा आसान बना दिया है। मोबाइल फोन और इंटरनेट के माध्यम से वह मौसम की जानकारी, कृषि संबंधित योजनाएँ और मंडियों में फसल की कीमतें जान सकता है। सरकार की योजनाओं, जैसे पीएम किसान सम्मान निधि, ई-नाम पोर्टल, और कृषि क्रेडिट कार्ड से उसे आर्थिक और तकनीकी सहायता मिल रही है। वहीं, जैविक खेती, बहुफसली खेती और ड्रोन तकनीक जैसे नए प्रयोग भी अब गाँवों तक पहुँचने लगे हैं। हालाँकि कई किसान इन नवाचारों से अभी भी वंचित हैं, परंतु परिवर्तन की बयार चल पड़ी है। यदि इन संसाधनों को सही मार्गदर्शन और प्रशिक्षण के साथ जोड़ा जाए, तो भारतीय किसान वैश्विक स्तर पर आत्मनिर्भर और प्रतिस्पर्धी बन सकता है।
भारतीय किसान सच्चा राष्ट्र निर्माता है। वह मिट्टी में सोना उगाने की क्षमता रखता है। उसकी श्रमशक्ति, साधना और सेवा भावना भारत को आत्मनिर्भर बनाती है। लेकिन आज आवश्यकता है कि उसकी मेहनत को सही सम्मान, मूल्य और सुरक्षा दी जाए। उसे आधुनिक उपकरण, उचित बीज, समय पर सिंचाई, और फसल की सही कीमत मिले। तभी वह और अधिक उत्साह से देश सेवा कर सकेगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि “किसान अन्नदाता नहीं, जीवनदाता है।” उसके हाथों में हल ही नहीं, पूरे राष्ट्र की रीढ़ है। और जब रीढ़ मजबूत होती है, तभी राष्ट्र सीना तानकर खड़ा होता है।
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