भारत, जिसे विविधताओं का देश कहा जाता है, आज एक ऐसी चुनौती से जूझ रहा है जो विकास के पंखों को थामे हुए है—जनसंख्या वृद्धि। यह वृद्धि केवल संख्याओं की बात नहीं, बल्कि संसाधनों पर पड़ते बोझ, जीवन की गुणवत्ता में गिरावट, और सामाजिक संतुलन के बिगड़ते चित्र को सामने लाती है। स्वतंत्रता के समय लगभग 33 करोड़ की जनसंख्या वाला भारत, आज 2025 में लगभग 146 करोड़ की जनसंख्या के साथ विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन चुका है। यह आँकड़ा जहाँ एक ओर देश की जनशक्ति का परिचायक है, वहीं दूसरी ओर योजनाओं की परीक्षा की कसौटी भी है।
बढ़ती जनसंख्या का असर हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी में झलकता है—खाद्यान्न की कमी, शिक्षा में असमानता, अस्पतालों में भीड़, बेरोजगारी की बढ़ती दर, और शहरों की गलियों में छिपी हुई गरीबी। “ऊँट के मुँह में जीरा” वाली स्थिति तब आती है जब योजनाएं तो बनती हैं, पर जनसंख्या के भार तले दबकर दम तोड़ देती हैं। संसाधनों का संतुलित वितरण असंभव प्रतीत होता है और जीवन स्तर गिरता चला जाता है।
जनसंख्या वृद्धि केवल आर्थिक समस्या नहीं है, यह सामाजिक और मानसिक स्तर पर भी प्रभाव डालती है। बच्चों की सही परवरिश, महिलाओं का स्वास्थ्य, युवाओं की शिक्षा और बुज़ुर्गों की देखभाल—all कुछ इस भार से ग्रसित होते जा रहे हैं। समाज में अपराध, कुपोषण और असमानता जैसी बुराइयाँ जनसंख्या विस्फोट की ही कोख से जन्म लेती हैं। “भीड़ में खो जाना” केवल शाब्दिक नहीं, आज का यथार्थ है।
भारत में परिवार को एक संस्था के रूप में बहुत महत्व दिया गया है। पर जब यही संस्था असंयमित हो जाए, तो परिणाम केवल परिवार नहीं, राष्ट्र भुगतता है। विवाह के बाद बच्चों की संख्या पर नियंत्रण न होना केवल व्यक्तिगत निर्णय नहीं, सामाजिक ज़िम्मेदारी का अभाव भी दर्शाता है। लेकिन यह भी सत्य है कि अब शिक्षित वर्ग में दो संतान का आदर्श धीरे-धीरे स्थापित हो रहा है, जिसे “हम दो, हमारे दो” की नीति ने बल दिया है।
शिक्षा को यदि हम राष्ट्र की रीढ़ मानें, तो जनसंख्या नियंत्रण उसकी सबसे बड़ी शाखा है। यह देखा गया है कि जहाँ शिक्षा का स्तर ऊँचा है, वहाँ परिवार छोटे और संतुलित होते हैं। शिक्षा न केवल जानकारी देती है, बल्कि विवेक भी जाग्रत करती है। अशिक्षित वर्ग में प्रजनन दर अधिक देखी गई है, जिससे सामाजिक-आर्थिक असमानता और भी गहराती जाती है।
स्वास्थ्य सुविधाओं और परिवार नियोजन के उपायों की उपलब्धता भी इस दिशा में महत्वपूर्ण है। गर्भनिरोधक साधनों की जानकारी, महिलाओं के स्वास्थ्य की देखभाल, किशोरों में यौन शिक्षा—इन सभी उपायों को ज़मीनी स्तर पर पहुँचाना अनिवार्य है। जब तक यह प्रयास “कागज़ी घोड़े” बने रहेंगे, तब तक “नाव मंझधार में” ही अटकी रहेगी।
इस विषय पर नीति निर्धारण के साथ-साथ जन-जागृति भी आवश्यक है। विज्ञापनों, सोशल मीडिया, और विद्यालयों में जागरूकता अभियान चलाकर आमजन को इसकी गंभीरता समझाई जानी चाहिए। दो से अधिक संतान वाले माता-पिता को सरकारी नौकरियों में प्राथमिकता न देना और सीमित परिवारों को प्रोत्साहन देना जैसी योजनाएं जनसंख्या नियंत्रण को व्यवहारिक बनाएंगी।
वर्तमान युग तकनीकी और डिजिटल विकास का है। इस युग में ‘डेटा’ से लेकर ‘डिजिटल स्वास्थ्य’ तक सब कुछ संभव है। ऐसे में जनसंख्या नियंत्रण के लिए मोबाइल ऐप्स, टेलीमेडिसिन, और ऑनलाइन परामर्श सेवा जैसे उपायों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। युवाओं की सोच में बदलाव लाना और आधुनिक तकनीकों को साधन बनाना समय की मांग है।
कई बार यह तर्क भी दिया जाता है कि अधिक जनसंख्या होने से श्रमिक शक्ति बढ़ती है और देश की उत्पादकता में योगदान होता है। यह तर्क सतही रूप से ठीक प्रतीत हो सकता है, परंतु बिना गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और संसाधनों के यह शक्ति बोझ बन जाती है। “अधपका ज्ञान विनाश का कारण होता है”, ठीक वैसे ही बिना संतुलन के जनसंख्या राष्ट्र के विकास को अवरुद्ध कर देती है।
अब समय आ गया है कि जनसंख्या को केवल आंकड़ों में नहीं, बल्कि सामाजिक और नैतिक जिम्मेदारी के रूप में देखा जाए। माता-पिता, शिक्षक, नीति निर्माता और प्रत्येक नागरिक को मिलकर यह तय करना होगा कि “संख्या नहीं, संस्कार बढ़ें”, तभी देश अपनी असली क्षमता को पहचान सकेगा। भारत की शक्ति उसकी जनसंख्या में नहीं, बल्कि संतुलित जनसंख्या में है।
इस दिशा में सरकार और समाज दोनों को कदम बढ़ाने होंगे। जागरूकता, शिक्षा, तकनीक और सख्त नीति-प्रवर्तन के माध्यम से हम इस जनसंख्या विस्फोट को “जनशक्ति विकास” में परिवर्तित कर सकते हैं। तभी भारत “सपनों का भारत” बन पाएगा—एक ऐसा देश जहाँ हर व्यक्ति को जीवन जीने का समान अवसर मिले, और हर संसाधन पर सबका हक़ हो।
अस्वीकरण (Disclaimer):
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