हमारा देश भारत एक समय पर विश्व गुरु के रूप में जाना जाता था। नैतिकता, सत्य, सेवा और चरित्र हमारे राष्ट्रीय गुण माने जाते थे। परंतु आज जब हम अपने समाज की तस्वीर देखते हैं, तो हर कोने में भ्रष्टाचार की कालिख फैली हुई नजर आती है। ऐसा प्रतीत होता है मानो राष्ट्र के हर अंग को इस बुराई ने जकड़ लिया हो। यह केवल एक सामाजिक बुराई नहीं बल्कि राष्ट्रीय पतन का संकेत है। हमारे मनीषियों ने कहा है, “धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो कुछ गया, परंतु चरित्र गया तो सब कुछ गया।” भ्रष्टाचार चरित्र का ही विनाश है।
स्वतंत्र भारत की योजनाओं और विकास कार्यों में जिस प्रकार से भ्रष्टाचार ने अपने पैर पसारे हैं, वह चिंता का विषय है। पंचायतों से लेकर संसद तक, विद्यालयों से लेकर अस्पतालों तक, कहीं न कहीं रिश्वत, भाई-भतीजावाद और अनियमितता की जड़ें दिखाई देती हैं। देश की अधिकांश सरकारी योजनाएं या तो आधी-अधूरी रह जाती हैं या उनका लाभ वास्तविक ज़रूरतमंदों तक पहुँच ही नहीं पाता। वजह केवल एक—भ्रष्टाचार। यह दीमक की तरह राष्ट्र की नींव को खोखला कर रहा है।
भ्रष्टाचार दो रूपों में सर्वाधिक स्पष्ट होता है—अवांछित लाभ कमाने की लालसा और कानूनों को ताक पर रखकर निजी स्वार्थ की पूर्ति करना। यह प्रवृत्ति नौकरशाही से लेकर आम व्यापारी तक में व्याप्त है। उद्योगपतियों द्वारा नकली और मिलावटी उत्पाद बनाना, आवश्यक वस्तुओं की कालाबाज़ारी करना, जनस्वास्थ्य की अनदेखी करना—यह सब भ्रष्टाचार के ही रूप हैं। राजनेताओं का टिकट खरीदना और सरकारी पदों पर रिश्वत देकर नियुक्तियाँ कराना भी इसी श्रेणी में आता है।
आज का युवा वर्ग शिक्षा पूरी करने के बाद रोजगार पाने के लिए दर-दर भटकता है। यदि वह ईमानदारी से कोशिश करता है, तो अयोग्य और पैसे वाले लोग उसकी जगह ले लेते हैं। इसके परिणामस्वरूप समाज में असंतोष, कुंठा और अवसाद फैलता है। कुछ युवा अपराध की ओर भी बढ़ जाते हैं। यह केवल एक व्यक्ति का नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र का संकट है।
आर्थिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार का सबसे घातक रूप देखने को मिलता है। सरकार द्वारा दिए जाने वाले ठेके, सहायता राशि, अनुदान—यह सब काले धन के निर्माण के स्रोत बन जाते हैं। कुछ अधिकारी तो इतनी चालाकी से योजनाओं को बनाते हैं कि उनका एक बड़ा हिस्सा उन्हीं की जेब में चला जाता है। आम जनता केवल आश्वासनों के सहारे रह जाती है।
न्यायपालिका भी इस बुराई से अछूती नहीं रही है। कभी-कभी मुकदमों में देरी या पक्षपात की खबरें आम हो जाती हैं। न्याय प्रणाली में देरी भी एक प्रकार का अन्याय है। जब दोषी वर्षों तक खुले घूमता है और पीड़ित न्याय की आस में बूढ़ा हो जाता है, तो यह भी एक प्रकार का भ्रष्टाचार है। दंड की कठोरता का अभाव भ्रष्टाचार को बल देता है।
समाज में जब धन ही सफलता का मानक बन जाए, तो चरित्र, ईमानदारी, और सेवा जैसे मूल्य हास्यास्पद लगने लगते हैं। यह मानसिकता बदलने की आवश्यकता है। हमें बच्चों को प्रारंभिक शिक्षा से ही नैतिक मूल्यों की समझ देनी होगी। यदि छात्र जीवन में ही सत्य, परिश्रम और ईमानदारी की नींव रखी जाए तो वे बड़े होकर जिम्मेदार नागरिक बन सकते हैं।
वर्तमान डिजिटल युग में भी भ्रष्टाचार ने अपना नया रूप धारण कर लिया है। साइबर घोटाले, डेटा चोरी, नकली वेबसाइटों के माध्यम से धोखाधड़ी जैसी घटनाएँ सामने आ रही हैं। यहाँ तक कि ऑनलाइन सरकारी सेवाओं में भी पारदर्शिता का अभाव देखा गया है। इस समस्या के समाधान के लिए साइबर निगरानी, डिजिटल अनुकरण और जवाबदेही की व्यवस्था अत्यंत आवश्यक है।
एक अच्छा शासन केवल विधानों से नहीं चलता, बल्कि उसे चलाने वालों के चरित्र से चलता है। यदि अधिकारी और नेता स्वयं ईमानदारी के आदर्श प्रस्तुत करें, तो नीचे तक सकारात्मक प्रभाव पहुँचेगा। प्रशासनिक प्रशिक्षण में नैतिक शिक्षा को अनिवार्य बनाना होगा।
जनता को भी सजग और सक्रिय बनना होगा। आजकल सामाजिक माध्यम एक सशक्त हथियार बन चुका है। किसी भी भ्रष्टाचार की सूचना को व्यापक रूप से साझा कर जन चेतना पैदा की जा सकती है। परंतु केवल आलोचना से काम नहीं चलेगा, समाज को सकारात्मक उदाहरण भी देने होंगे। जब तक हम सब अपने-अपने स्तर पर सत्यनिष्ठा नहीं अपनाएँगे, तब तक सुधार संभव नहीं।
कुछ तकनीकी उपाय भी आवश्यक हैं जैसे—ई-शासन, आधार संलग्न भुगतान, स्थान आधारित निगरानी, सार्वजनिक खर्चों की पारदर्शिता और शिकायत निवारण की स्वचालित प्रणाली। इन उपायों से भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकता है।
भारत जैसे देश में जहाँ युवा शक्ति सबसे बड़ी पूंजी है, वहाँ यदि यह शक्ति सही दिशा में लगाई जाए तो भ्रष्टाचार जैसी विकृति का समूल नाश किया जा सकता है। युवाओं को स्वरोजगार, नवाचार और सामाजिक उद्यमों की ओर प्रेरित किया जाना चाहिए। इससे न केवल वे आत्मनिर्भर बनेंगे बल्कि समाज को भी स्वच्छ बनाएंगे।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार भारत की उन्नति की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। इससे केवल आर्थिक ही नहीं, नैतिक और सामाजिक पतन भी होता है। अगर समय रहते हम सबने इसे समाप्त करने की ठान ली, तो यह कार्य असंभव नहीं। शासन, समाज, शिक्षा और नागरिक—सब मिलकर प्रयास करें तो ‘भ्रष्टाचार मुक्त भारत’ का सपना साकार किया जा सकता है। यही राष्ट्रभक्ति की सच्ची पहचान होगी।
अस्वीकरण (Disclaimer):
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