भारत में वन-संपदा का महत्व (Importance of Forest Wealth in India for Environment, Economy and Culture)

भारत एक ऐसा देश है, जिसे प्रकृति ने अपार संपदाओं से नवाज़ा है। यहाँ की धरती नदियों, पर्वतों और वनों से समृद्ध है। प्राचीन काल से ही भारत के लोग वनों को जीवन का आधार मानते आए हैं। कहा भी गया है—“वन ही जीवन, वन ही साधन।” वन केवल हरियाली का प्रतीक नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व की डोर भी इन्हीं से जुड़ी है। खेती-किसानी से लेकर उद्योगों तक, घरेलू उपयोग से लेकर पर्यावरण संतुलन तक, वनों की भूमिका अपरिहार्य है। यदि वनों को जीवन का प्राण कहा जाए तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। जंगलों से बहती शीतल हवाएँ, बहते झरने और पंछियों का मधुर संगीत, भारतीय संस्कृति और जीवन का अभिन्न अंग रहे हैं। यही कारण है कि ऋषि-मुनियों ने अपने आश्रम सदैव वनों की गोद में ही बसाए और वहीं से उन्होंने समाज को जीवन-दर्शन दिया।

भारत में वनों का महत्व सबसे पहले जल संसाधनों से जुड़ता है। हमारे देश में सिंचाई का सबसे बड़ा साधन वर्षा ही है। नदियों का प्रवाह, झीलों का जल और भूगर्भीय स्रोत, सब वनों पर ही निर्भर हैं। वृक्ष वर्षा के बादलों को आकर्षित करते हैं और भू-क्षरण रोकते हैं। जब पहाड़ों पर बर्फ पिघलती है या बारिश होती है, तो नदियाँ जीवनदायिनी बन जाती हैं। किंतु यह प्रवाह वनों के संरक्षण से ही संतुलित रह सकता है। यदि वनों का अंधाधुंध कटान हो, तो नदियों का जलस्तर घटता है और वर्षा का चक्र बिगड़ जाता है। यही कारण है कि कहा जाता है—“पेड़ लगाओ, पानी बचाओ।” किसान की लहलहाती फसल दरअसल वनों की ही देन है, क्योंकि वर्षा और जलस्रोत उन्हीं से सुरक्षित रहते हैं।

वन केवल जल ही नहीं, ऊर्जा का भी प्रमुख साधन हैं। भारत की अधिकतर नदियों पर बने बाँध विद्युत उत्पादन में सहायक हैं। जलविद्युत परियोजनाएँ तभी सफल होती हैं, जब नदियों का प्रवाह नियमित और संतुलित हो। यह संतुलन वनों के संरक्षण से ही संभव है। पेड़-पौधे जल को सोखकर धीरे-धीरे जमीन में पहुँचाते हैं, जिससे नदियाँ साल भर जल से भरी रहती हैं। यदि जंगल कट जाएँ तो बरसात का पानी तेजी से बहकर नदियों में चला जाता है और बाढ़ का रूप ले लेता है। बरसात के बाद भूमि सूखने लगती है और सूखा पड़ जाता है। इस प्रकार बिजली उत्पादन से लेकर उद्योग-धंधों की निरंतरता तक, सब वनों पर निर्भर है। यही कारण है कि वनों को राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा का अदृश्य आधार भी माना जाता है।

पर्यावरण संतुलन में वनों की भूमिका अतुलनीय है। पेड़-पौधे कार्बन डाइऑक्साइड को सोखकर ऑक्सीजन छोड़ते हैं, जिससे हमें प्राणवायु मिलती है। वैज्ञानिक अनुसंधानों ने सिद्ध कर दिया है कि पेड़ वायु प्रदूषण को कम करने के साथ-साथ ध्वनि प्रदूषण को भी सोख लेते हैं। यही कारण है कि शहरों की भीड़-भाड़ में बने पार्क और बगीचे लोगों के लिए राहत का श्वास प्रदान करते हैं। गर्मी में वृक्ष छाँव देकर वातावरण को ठंडा करते हैं और ठंड में हवा को संतुलित रखते हैं। कहा भी गया है—“एक वृक्ष दस पुत्र समान।” अर्थात् एक पेड़ की उपयोगिता दस बेटों से भी अधिक है। आज के समय में जब प्रदूषण की समस्या विकराल रूप ले चुकी है, तब वृक्ष ही हमारे लिए जीवन रक्षक बन सकते हैं।

भारतीय संस्कृति में वृक्षों का महत्व केवल उपयोगिता तक सीमित नहीं रहा, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं से भी जुड़ा रहा है। पीपल, बरगद, नीम, तुलसी, आँवला आदि वृक्षों को पूज्य मानकर उनकी आराधना की जाती रही है। लोक मान्यताओं में पेड़ काटना पाप और वृक्षारोपण पुण्य का कार्य माना गया है। हमारी कथाओं और लोकगीतों में भी पेड़ों की महिमा गाई जाती है। यह हमारी जीवनदृष्टि रही है कि जो प्रकृति हमें जीवन देती है, उसका सम्मान करना ही मानव का धर्म है। यही कारण है कि गाँवों में बड़े-बुजुर्ग बरगद के नीचे बैठकर पंचायत किया करते थे। वृक्ष केवल छाया ही नहीं, बल्कि सामाजिकता और एकता का प्रतीक भी बनते हैं।

यदि हम विश्व की ओर देखें तो कई देशों ने वनों के संरक्षण को अपनी राष्ट्रीय नीति बना लिया है। इज़राइल इसका प्रमुख उदाहरण है, जहाँ लोगों ने रेगिस्तान को हरा-भरा बना दिया। वहाँ बच्चों के जन्म और प्रियजनों की स्मृति में वृक्षारोपण की परंपरा है। भारत जैसे विशाल देश को भी ऐसी प्रेरणाओं से सीख लेनी चाहिए। यदि एक छोटे देश ने रेगिस्तान को उद्यान में बदल दिया, तो हमारे पास तो अपार भूमि और विविध जलवायु है। आवश्यकता केवल दृढ़ संकल्प और सामूहिक प्रयास की है। “जहाँ चाह वहाँ राह”—इस कहावत को यदि हर नागरिक अपनाए, तो भारत का हर कोना हरियाली से भर सकता है।

वनों के संरक्षण के लिए सरकार और समाज दोनों को मिलकर काम करना होगा। भारत सरकार ने ‘राष्ट्रीय वन नीति’ बनाई है, जिसके अंतर्गत देश के कम से कम 33% भू-भाग पर वन होने चाहिए। आज की स्थिति यह है कि भारत का लगभग 21.7% क्षेत्र ही वनों से आच्छादित है। इसका अर्थ है कि हमें अभी भी बहुत काम करना बाकी है। पर्यावरण मंत्रालय, वन विभाग और स्थानीय प्रशासन लगातार वृक्षारोपण अभियान चला रहे हैं, लेकिन जब तक आम नागरिक इसमें भागीदार नहीं होंगे, तब तक अपेक्षित सफलता नहीं मिलेगी। गाँव-गाँव, गली-गली में यदि वृक्ष लगाए जाएँ और उनकी देखभाल की जाए, तभी स्थिति बदल सकती है।

वनों की उपेक्षा का परिणाम हमने बार-बार भुगता है। बाढ़, सूखा, भूस्खलन और मरुस्थलीकरण—ये सब वनों की कटाई का ही परिणाम हैं। जब पहाड़ियों से पेड़ काट दिए जाते हैं, तो वर्षा का पानी तेजी से नीचे आता है और भूस्खलन का कारण बनता है। नदियाँ गाद से भर जाती हैं और बाढ़ आ जाती है। दूसरी ओर गर्मियों में पानी का अभाव सूखा बन जाता है। खेत बंजर होने लगते हैं और किसान त्राहि-त्राहि कर उठते हैं। यह स्पष्ट है कि यदि हमें इन प्राकृतिक आपदाओं से बचना है तो हमें वनों का संरक्षण करना ही होगा। कहावत है—“समय पर किया गया एक टाँका, नौ टाँकों को बचाता है।” यदि अभी सावधानी बरती जाए तो भविष्य सुरक्षित रहेगा।

आज के समय में जलवायु परिवर्तन की चुनौती हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या बनकर उभरी है। ग्लेशियर पिघल रहे हैं, तापमान बढ़ रहा है और मौसम का चक्र असंतुलित हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें बता रही हैं कि यदि वनों का संरक्षण न हुआ, तो पृथ्वी पर जीवन संकट में पड़ सकता है। भारत जैसे विकासशील देश में यह चुनौती और भी गंभीर है, क्योंकि यहाँ बड़ी आबादी कृषि पर निर्भर है। यदि वर्षा का क्रम बिगड़ा तो अन्न संकट उत्पन्न हो सकता है। ऐसे में वन ही वह आधार हैं, जिनके सहारे हम इस चुनौती का सामना कर सकते हैं। वनों को बचाना दरअसल मानवता को बचाना है।

वनों के आर्थिक लाभ भी कम नहीं हैं। लकड़ी, गोंद, रेज़िन, औषधीय पौधे, बांस, फल-फूल आदि से अनेक उद्योग चलते हैं। लाखों लोग इन उद्योगों से आजीविका कमाते हैं। वनों से प्राप्त औषधियाँ आयुर्वेद और आधुनिक चिकित्सा दोनों में अमूल्य मानी जाती हैं। हाल ही में विश्व ने देखा कि कोरोना जैसी महामारी के समय भी प्राकृतिक औषधियों ने रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई। यदि वनों को नष्ट कर दिया गया तो यह अमूल्य धरोहर भी नष्ट हो जाएगी। इसलिए कहा गया है—“जो पेड़ लगाता है, वह भविष्य बोता है।” यह भविष्य हमारे स्वास्थ्य और आर्थिक समृद्धि दोनों से जुड़ा है।

समाज और सरकार को मिलकर वन-संपदा की रक्षा करनी होगी। वृक्षारोपण केवल अभियान बनकर न रह जाए, बल्कि जीवनशैली का हिस्सा बनना चाहिए। प्रत्येक नागरिक को यह संकल्प लेना चाहिए कि वह हर वर्ष कम से कम एक पेड़ अवश्य लगाएगा और उसकी देखभाल करेगा। सड़क किनारे, नहरों के पास, स्कूलों और दफ्तरों में सामूहिक वृक्षारोपण होना चाहिए। साथ ही, यह भी सुनिश्चित किया जाए कि जितने वृक्ष काटे जाएँ, उतने ही नए पेड़ लगाए जाएँ। यदि इस सिद्धांत को कठोरता से लागू किया जाए, तो निश्चित ही भारत में हरियाली की कमी नहीं होगी।

अंततः यह कहा जा सकता है कि भारत में वन-संपदा का महत्व केवल भौतिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से भी है। वृक्षों को धरती का आभूषण और मानवता का जीवन कहा गया है। यदि हम आने वाली पीढ़ियों को सुरक्षित और सुखद भविष्य देना चाहते हैं, तो वनों को बचाना ही होगा। प्रकृति के प्रति हमारी निष्ठा ही हमारी सभ्यता की पहचान है। आइए, हम सब मिलकर यह संकल्प लें—“न काटेंगे वृक्ष, लगाएंगे वृक्ष”—ताकि भारत की धरती फिर से हरियाली की चादर ओढ़े और जीवनदायिनी वनों की गूंजती छाया आने वाले युगों तक बनी रहे।

अस्वीकरण (Disclaimer):
यह निबंध केवल शैक्षणिक संदर्भ और प्रेरणा हेतु प्रस्तुत किया गया है। पाठकों/विद्यार्थियों को सलाह दी जाती है कि वे इसे शब्दशः परीक्षा या प्रतियोगिताओं में न लिखें। इसकी भाषा, संरचना और विषयवस्तु को समझकर अपने शब्दों में निबंध तैयार करें। परीक्षा अथवा गृहकार्य करते समय शिक्षक की सलाह और दिशा-निर्देशों का पालन अवश्य करें।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Scroll to Top