भारत एक बहुभाषी, बहुधर्मी, और विविध सांस्कृतिक पहचान वाला राष्ट्र है। यहाँ असंख्य जातियाँ और बोलियाँ प्रचलित हैं, परंतु जब बात राष्ट्रीय एकता की होती है तो भाषा ही वह सूत्र बनती है जो सभी विविधताओं को एक माला में पिरो देती है। भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में धर्म के आधार पर तो एकता कठिन है, किंतु भाषा के माध्यम से हम समूचे देश को एक लय में बाँध सकते हैं। प्राचीन भारत में जब मत-मतांतरों की भरमार थी, तब संस्कृत वह सेतु बनी थी, जिसने सभी को एक सूत्र में जोड़े रखा। उसी परंपरा को ध्यान में रखते हुए संविधान निर्माताओं ने हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित किया, क्योंकि यह सबसे अधिक जनसंख्या द्वारा बोली और समझी जाती है। साथ ही यह प्रशासनिक, शैक्षणिक और जनसंचार के लिए सहज माध्यम है।
संविधान सभा में जब भाषा का प्रश्न उठा, तब हिंदी और अहिंदी भाषी दोनों प्रकार के सदस्य मौजूद थे। हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा तो दिया गया, परंतु अहिंदी भाषी प्रतिनिधियों के आग्रह पर यह निर्णय भी लिया गया कि अंग्रेजी को भी 15 वर्षों तक सहायक भाषा के रूप में रखा जाएगा। दुर्भाग्यवश, यह अस्थायी व्यवस्था आज भी स्थायी बनी हुई है। अंग्रेज़ी भाषा के प्रभाव और आकर्षण ने हिंदी को पीछे धकेल दिया है। “अपना देश, अपनी भाषा” का नारा आज भी केवल नारों तक ही सीमित रह गया है। महात्मा गांधी ने कहा था— “यदि राष्ट्र को आत्मनिर्भर बनाना है तो उसकी राष्ट्रभाषा आत्मनिर्भर होनी चाहिए।”
इस पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हिंदी को ही क्यों चुना गया? गांधी जी ने राष्ट्रभाषा की कुछ शर्तें बताई थीं— वह सरल हो, जनसाधारण में प्रचलित हो, प्रशासनिक कार्यों में सक्षम हो और उसे बोलनेवाले देश में अधिक हों। इन सभी कसौटियों पर हिंदी खरी उतरती है। अन्य भाषाओं जैसे तमिल, तेलुगु, बांग्ला, मराठी आदि में भी समृद्धि है, परंतु वे क्षेत्रीय दायरे तक सीमित हैं। अंग्रेज़ी को केवल एक छोटा वर्ग ही ठीक से समझ पाता है, अतः वह राष्ट्रभाषा बनने की पात्रता नहीं रखती। “विदेशी भाषा से स्वाभिमान नहीं, पराधीनता उपजती है।”
हमारे देश में अरबी, फारसी और फिर अंग्रेज़ी शासकों ने अपनी-अपनी भाषाओं को प्रचलित करने का प्रयास किया। विशेषतः अंग्रेज़ों ने अंग्रेज़ी को न केवल शासन बल्कि शिक्षा का भी माध्यम बना दिया। इससे न केवल हिंदी बल्कि सभी भारतीय भाषाओं का विकास अवरुद्ध हुआ। अंग्रेज़ी को ज्ञान और सभ्यता का पर्याय बना दिया गया। यह आज भी हमारी शिक्षा प्रणाली और मानसिकता में दिखता है। जब तक हम अपनी भाषा को गर्व से नहीं अपनाते, तब तक हमारी सांस्कृतिक पहचान अधूरी रह जाएगी।
आज के युग में वैश्वीकरण और तकनीकी प्रगति के बावजूद मातृभाषा और राष्ट्रभाषा का महत्व कम नहीं हुआ है। हिंदी ने विज्ञान, तकनीक, साहित्य, मनोरंजन और सोशल मीडिया के माध्यम से एक नई ऊर्जा प्राप्त की है। हिंदी में अब तकनीकी शब्दावली भी विकसित हो चुकी है, जिससे वह नवाचार की भाषा बन रही है। डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया जैसे अभियानों में हिंदी की भागीदारी बढ़ रही है। हमें यह समझना चाहिए कि आधुनिकता को अपनाने के लिए अपनी जड़ों को काटना आवश्यक नहीं है। “जो वृक्ष अपनी जड़ों से कटता है, वह अधिक समय तक खड़ा नहीं रह सकता।”
राष्ट्रभाषा केवल संप्रेषण का माध्यम नहीं, बल्कि राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है। सीमांत गांधी ने कहा था— “जब राष्ट्र अपनी भाषा खो देता है, तो वह अपनी आत्मा को खो देता है।” भाषा ही वह शक्ति है जो किसी भी समाज की आत्मा को जीवंत रखती है। हमें न केवल हिंदी का गौरव बढ़ाना है, बल्कि उसे व्यवहार में लाना है। सामाजिक और राजनीतिक समरसता के लिए एक ऐसी भाषा आवश्यक है जो सबको जोड़े। हिंदी इस भूमिका को भलीभाँति निभा सकती है।
अतः यह कहना अनुचित नहीं होगा कि राष्ट्रभाषा का गौरव केवल हिंदी को ही मिल सकता है। इसके माध्यम से हम अपने देश की एकता, संस्कृति और पहचान को सशक्त बना सकते हैं। “हिंदी हमारी आत्मा है, इसे अपनाना हमारा धर्म भी है और कर्तव्य भी।”
अस्वीकरण (Disclaimer):
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