राष्ट्र-प्रेम (Patriotism in India: Meaning, Duties and Relevance)

राष्ट्र के प्रति प्रेम कोई तात्कालिक उत्तेजना नहीं, बल्कि हृदय की धड़कनों में बजती वह मधुर तान है जो जीवनभर कर्तव्य की याद दिलाती रहती है। घर-आँगन की मिट्टी की सोंधी गंध, नदियों की धार, खेतों की हरियाली और गलियों की खिलखिलाहट मिलकर मन में अपनत्व की जो अमृत-धारा जगाती है, वही सच्चा राष्ट्र-स्नेह है। यह भावना दिखावे की चकाचौंध से नहीं, रोज़मर्रा के कर्मों से पहचानी जाती है—कभी नियमों का पालन, कभी पड़ोसी की मदद, कभी विद्यालय या कार्यस्थल पर तन-मन-धन से ईमानदार श्रम। इस प्रेम में घमंड नहीं, विनय का उजाला होता है; यह किसी दूसरे देश या समुदाय के प्रति घृणा नहीं, अपने देश के प्रति जिम्मेदारी का उजला चेहरा है। कहावत है—जहाँ चाह, वहाँ राह—तो देशहित की राह पर इरादे अडिग रखें, भेड़चाल से दूर रहें। मुहावरा कहे तो दिल और दिमाग दोनों को साथ लेकर चलना चाहिए, ताकि आवेश में आकर आग में घी न डाला जाए। राष्ट्र-स्नेह का यही संतुलित रूप व्यक्ति को न केवल संवेदनशील नागरिक बनाता है, बल्कि समाज के लिए भरोसेमंद सहयात्री भी। जब कोई नागरिक अपने हिस्से का छोटा-सा दीपक जलाता है, अँधेरे खुद-ब-खुद छँटने लगते हैं; बूँद-बूँद से सागर भरता है, और यही बूँदें मिलकर विकास की गंगा बनाती हैं।

यह प्रेम जन्मभूमि के साथ उस सहज नाते से उपजता है, जिसकी जड़ें स्मृतियों की भीगी मिट्टी में धँसी रहती हैं। बचपन में देखे मेले, त्योहारों की रौनक, माँ की रसोई से उठती महक, विद्यालय की प्रार्थना और दोस्तों के संग हँसी-ठिठोली—ये सब मिलकर मन में ऐसा अपनापन रचते हैं कि परदेस की चकाचौंध भी कई बार फीकी लगने लगती है। परदेस में बसने वाले भी अक्सर कहते सुने जाते हैं—दिल तो यहीं अटका है; यह वाक्य केवल भावुकता नहीं, बल्कि उस रेशमी डोर का संकेत है जो मन को मिट्टी से बाँधे रखती है। मातृभूमि के प्रति यह अनुराग न तुलना चाहता है, न प्रमाण; यह तो उस अनकहे ऋण की स्मृति है जिसे चुकाने की इच्छा व्यक्ति को दिन-रात एक करने की प्रेरणा देती है। भाषा, बोली, लोक-गीत, कहावतें और लोक-कलाएँ इसी प्रेम की छाँव में पनपती हैं। जब अपनी बोली ओढ़कर नागरिक सीना तानकर बोलता है, आत्मविश्वास फूट पड़ता है; जब अपनी संस्कृति का मान रखता है, तो विश्व में भी विशिष्ट पहचान बनती है। यही कारण है कि आत्मा की गहराइयों में बसा देशप्रेम हर मोड़ पर राह दिखाता है।

सच्चा राष्ट्र-स्नेह दिखावटी नारों से नहीं, विचार और व्यवहार की पवित्रता से जाना जाता है। ऊँची-ऊँची बातों का शोर कई बार पल-भर की आँधी बनकर आता है और थम भी जाता है; पर सेवाभाव की धीमी, निरंतर चाल चट्टान को भी घिस देती है। देश के लिए प्रेम का अर्थ किसी भी दूसरे देश से घृणा करना नहीं; यह तो मानवता के व्यापक परिवार में अपनी मिट्टी से निष्ठा निभाते हुए सबके प्रति आदर रखने की कला है। कहावत है—एकता में शक्ति—तो यह प्रेम पहले घर में, फिर मोहल्ले में, फिर शहर और देश में आपसदारी को पुख्ता करता है। जब नागरिक विधि-विधान का सम्मान करते हैं, विविधता का आदर करते हैं, तब लोकतंत्र की जड़ें और गहरी होती हैं। मुहावरे की भाषा में कहें तो सीना ठोककर शोर मचाना आसान है, पर देशहित में खामोशी से खून-पसीना बहाना कठिन साधना है। विचारों में संयम, कर्म में सयंम, और वाणी में माधुर्य—ये तीन दीपक मिलकर राष्ट्र-स्नेह की ज्योति को स्थिर रखते हैं; और यही स्थिरता उथल-पुथल के समय भी जहाज़ को डूबने नहीं देती।

राष्ट्र-निर्माण की पहली ईंट नागरिक कर्तव्यों से रखी जाती है—कानून मानना, कर देना, मतदान करना, ईमानदार श्रम करना, सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना, और समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने के लिए हाथ बँटाना। बाल-विवाह, दहेज, अंधविश्वास, जाति-द्वेष और भाई-भतीजावाद जैसी जकड़नों से मुक्त होना देश के प्रति सच्चे प्रेम की शर्त है। मुहावरा है—जैसा बोओगे, वैसा काटोगे—इसलिए शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता और समान अवसरों में निवेश ही भविष्य का स्वर्णिम फसल देता है। स्त्री-शिक्षा और आर्थिक सहभागिता से परिवार समृद्ध होता है, तो राष्ट्र का कद बढ़ता है; समावेशी विकास की इसी डगर पर सामाजिक समरसता खिलती है। रोज़मर्रा के छोटे-छोटे काम—कूड़ा सही जगह डालना, पानी और बिजली बचाना, ट्रैफिक नियम मानना, ईमानदारी से काम का समय देना—यही वे ईंटें हैं जिनसे प्रगति की इमारत खड़ी होती है। बूँद-बूँद से सागर भरता है; हर नागरिक की जागरूकता लोकतंत्र की धड़कन को ताकत देती है। इस सजगता का दूसरा नाम ही राष्ट्र-स्नेह है।

इतिहास ऐसे अनगिन तारों से जगमग है जिन्होंने मातृभूमि के लिए जान हथेली पर रख दी। पर स्वतंत्रता-संग्राम की दीप्त गाथाओं से आगे बढ़कर राष्ट्र-स्नेह की कथा उन गुमनाम किसानों, मजदूरों, दस्तकारों और अध्यापकों तक फैली है जिन्होंने चुपचाप अपने हिस्से की मशाल सँभाली। आज़ादी का अर्थ केवल बेड़ियाँ तोड़ना नहीं था; यह न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसी संवैधानिक मूल्यों को जीवन में उतारने का संकल्प भी था। यही मूल्य देशप्रेम का आधुनिक व्याकरण बने। मुहावरे में कहें तो ईंट से ईंट बजा देना वीरता नहीं, बल्कि आपसी विश्वास और विकास की ईंट जोड़ना असली शौर्य है। युद्धवीरों की वीरगाथाएँ प्रेरणा देती हैं, तो सुधारकों की तपस्या दिशा दिखाती है—अस्पृश्यता के विरुद्ध आवाज़, शिक्षा का दीपक, भाषा और विज्ञान का संगम, स्वदेशी उद्यम का स्वाभिमान—ये सब मिलकर राष्ट्र-निर्माण की रोशनी बढ़ाते हैं। इतिहास से मिली सीख है कि जब नागरिक कंधे से कंधा मिलाकर खड़े होते हैं, तब सबसे कठिन पहाड़ भी रास्ता बना देते हैं।

नए भारत की धड़कन विज्ञान, उद्यम और नवाचार से तेज़ हुई है। डिजिटल भुगतान से लेकर ग्रामीण उद्यमिता तक, छोटे-छोटे प्रयोगों ने बड़े-बड़े बदलाव दिखाए हैं; पड़ोस की दुकान में क्यूआर कोड से भुगतान हो या ऑनलाइन शिक्षा के माध्यम से दूर-दराज़ के छात्रों तक पहुँच, तकनीक ने अवसरों के द्वार खोले हैं। अंतरिक्ष विज्ञान में नई उड़ान ने आत्मविश्वास को पंख दिए—चंद्र-अन्वेषण और सौर-अध्ययन जैसी सफलताओं ने साबित किया कि यदि इरादा लोहे का हो, तो आकाश भी सीमा नहीं। स्टार्ट-अप संस्कृति ने युवाओं को रोजगार-देता और समाधान-निर्माता दोनों बनाया। पर तकनीक का अर्थ केवल चमक-दमक नहीं; डेटा-सुरक्षा, गोपनीयता, और नैतिक उपयोग जैसी जिम्मेदारियाँ भी साथ-साथ चलती हैं। मुहावरे की तरह—दोनों हथेलियों में घी नहीं मिलता—इसलिए सुविधाओं के साथ अनुशासन का संतुलन अनिवार्य है। जब विज्ञान के पंख और संस्कारों की पतंग एक साथ उड़ते हैं, तभी विकास की उड़ान स्थिर और ऊँची बनी रहती है; यही व्यावहारिक राष्ट्र-स्नेह है।

डिजिटल युग में देशप्रेम का एक नया चेहरा भी उभरा है—जिम्मेदार ऑनलाइन नागरिकता। सोशल मीडिया की दुनिया में झूठ और सच साथ-साथ दौड़ते हैं; भेड़चाल में पड़कर अफवाह फैलाना क्षणिक सनसनी तो बनाता है, पर समाज के ताने-बाने में धूल झोंक देता है। इसलिए तथ्य-जाँच, सभ्य संवाद, विविध मतों का सम्मान और घृणा-भाषा से दूरी—ये सब डिजिटल देशभक्ति के मंत्र हैं। साइबर सुरक्षा के नियम मानना, धोखाधड़ी से सतर्क रहना, और दूसरों को भी जागरूक करना देशहित का मौन-संग्राम है। ऑनलाइन याचिकाओं, क्राउडफंडिंग और वर्चुअल स्वयंसेवा से भी सामाजिक बदलाव संभव हुआ है—किसी की पढ़ाई के लिए सहायता, आपदा-पीड़ितों तक राहत, रक्तदान के नेटवर्क—ये सब उदाहरण दिखाते हैं कि उँगलियों की हलचल भी जन-हित का संवाहक बन सकती है। मुहावरा कहे तो—ढोल की पोल खोलने से बेहतर है, सुई-धागा उठाकर फटा हिस्सा सिलना—यानी आलोचना हो तो निर्मल, और सहयोग हो तो ठोस। यही संतुलित डिजिटल निष्ठा हमारे समय की बड़ी ज़रूरत है।

पर्यावरण के प्रति संवेदना भी आज के राष्ट्र-स्नेह का अनिवार्य स्वर है। जलवायु परिवर्तन की आँच खेतों, वनों, नदियों और शहरों—सब पर महसूस होती है; अतिवृष्टि, सूखा और प्रदूषण जैसी चुनौतियाँ चेतावनी देती हैं कि विकास और प्रकृति का संतुलन बिगड़ा तो भविष्य खटाई में पड़ जाएगा। देशप्रेम का अर्थ तब ही सार्थक है जब पेड़-पौधों, जल-स्रोतों और जैव-विविधता की रक्षा करने का सामूहिक संकल्प मजबूत हो। वर्षा-जल संचयन, स्वच्छ ऊर्जा, कचरा-प्रबंधन, सार्वजनिक परिवहन और साइकिल-संस्कृति—ये छोटे मगर कारगर कदम धरती को राहत देते हैं। बूँद-बूँद से जल-भंडार भरता है; मुट्ठी-मुट्ठी खाद बनकर मिट्टी की सेहत सँवारती है। आपदा के समय राहत और पुनर्वास में स्वयंसेवा, रक्तदान और दवा-सहायता—ये सब सेवा-परक कर्म राष्ट्र-स्नेह को कर्मयोग में बदल देते हैं। कहावत है—धरती माता है—तो उसकी सेहत ही संतान का भविष्य है; इसी समझ के साथ जब नागरिक कदम बढ़ाते हैं, तो विकास शाश्वत बनता है, न कि क्षणभंगुर।

सीमा पर तैनात सैनिक, आंतरिक सुरक्षा में जुटे अर्धसैनिक, पुलिसकर्मी, डॉक्टर, नर्स, सफाईकर्मी और शिक्षक—ये सभी अपने-अपने मोर्चों पर मातृभूमि की रक्षा-पंक्ति हैं। महामारी जैसे संकटों में जब जीवन थम-सा गया, तब इन्हीं कर्मयोगियों ने जान हथेली पर रखकर उम्मीद की लौ जलाई। खेल, संस्कृति, विज्ञान और उद्यम में नई उपलब्धियाँ तिरंगे को ऊँचा उठाती हैं, पर इनके पीछे अनगिनत साधकों का पसीना छिपा रहता है। राष्ट्र-स्नेह का उन्माद तालियों की गूँज में नहीं, बल्कि इन अनदेखे हाथों की मेहनत को सम्मान देने में है। मुहावरे में कहें तो—सीना तानना आसान, पर रोज़-रोज़ कंधा देना कठिन—अतः समाज के ऐसे योद्धाओं के प्रति कृतज्ञता, सहयोग और गरिमामय व्यवहार देशभक्ति की परख है। जब नागरिक सम्मान, संवेदना और सहयोग की डोर मज़बूत करते हैं, तब समाज का हौसला दोगुना हो जाता है और कठिन दौर में भी मनोबल टस से मस नहीं होता।

युवा पीढ़ी इस कथा की नायक है—जिज्ञासा उसके पास है, जज़्बा उसके भीतर, और नवाचार उसके हाथों में। शिक्षा में कौशल, नैतिकता और सेवा-भाव का संगम उन्हें समाधान-वीर बनाता है। विद्यालयों और महाविद्यालयों में नवाचार प्रयोगशालाएँ, सामुदायिक परियोजनाएँ, और उद्यमिता क्लब उस ऊर्जा को दिशा देते हैं; कोई छात्र गाँव को डिजिटल बनाता है, कोई ऐप से स्थानीय कारीगरों को बाज़ार दिलाता है, कोई विज्ञान मेले में सस्ती तकनीक से पानी शुद्ध करने का उपाय दिखाता है। मुहावरा है—जहाँ चाह, वहाँ राह—तो इच्छाशक्ति को अनुशासन का हाथ देना ज़रूरी है, वरना उड़ान अधूरी रह जाती है। खेल के मैदान से नैतिकता, प्रयोगशाला से जिज्ञासा, और पाठशाला से संवेदना—ये तीनों मिलकर नई पीढ़ी का व्यक्तित्व गढ़ते हैं। जब युवाएँ सामाजिक उद्यम, स्वेच्छासेवक समूह और शोध-प्रयास से जुड़ती हैं, तब देशप्रेम तिरंगे की भावनात्मक लहर से आगे बढ़कर टिकाऊ परिवर्तन की स्थिर धारा बन जाता है।

वर्तमान युग कृत्रिम बुद्धिमत्ता, अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था, क्वांटम तकनीक, हरित ऊर्जा और सेमीकंडक्टर निर्माण जैसे नए मोर्चों का युग है; भू-राजनीति और आपूर्ति-श्रृंखलाएँ तेजी से बदल रही हैं। ऐसे समय में राष्ट्र-स्नेह का अर्थ आत्मनिर्भरता के साथ सार्थक वैश्विक साझेदारी है। न तो आत्ममुग्ध अलगाव, न ही अंधी नकल; बल्कि अपनी ज़रूरतों और ताकतों के अनुरूप विवेकपूर्ण मेलजोल। अनुसंधान पर निवेश, बौद्धिक संपदा का सम्मान, स्टैंडर्ड्स में भागीदारी और गुणवत्ता-प्रधान उत्पादन—ये चार स्तंभ भारत को विश्व-विश्वसनीयता दिलाते हैं। डेटा संप्रभुता और ओपन-सोर्स सहयोग का संतुलन, हरित संक्रमण में न्यायसंगत ढांचा, और कौशल विकास के साथ सामाजिक सुरक्षा—इन सब पर दूरदृष्टि रखना आज की देशभक्ति है। मुहावरा है—लोहे को लोहे से काटना—तो तकनीकी चुनौतियों का सामना तकनीकी दक्षता से ही संभव है। नैतिकता, परिश्रम और नवाचार की त्रिवेणी में ही वह बल है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए स्वर्णिम कल रच सके।

अंततः, राष्ट्र-स्नेह कोई एक दिन का उत्सव नहीं; यह जीवन-भर का अनुशासन है। यह उत्साह भी है और उत्तरदायित्व भी—कभी हृदय में छिपी कविता, कभी माथे पर ठहरी पसीने की बूँद। विचारों में उदारता, कर्म में ईमानदारी और संबंधों में आत्मीयता—यही तीन दीपक रोज़ जलें, तो अँधेरों की परछाइयाँ पीछे छूटती जाएँ। तिरंगे के रंग केवल आकाश में नहीं, व्यवहार में भी उतरें—त्याग का केसरिया, शांति का श्वेत, और समृद्धि का हरा—तभी राष्ट्र का चक्र निरंतर आगे बढ़ेगा। कहावत याद रखनी चाहिए—धीरे-धीरे रे मना—स्थिर, सतत, सार्थक प्रयास ही बड़ा बदलाव लाते हैं। अपने हिस्से का काम समय पर करना, अपना वादा निभाना, और अपनी भाषा-संस्कृति का सम्मान करते हुए विश्व से सीखते रहना—यही आधुनिक, सर्वसमावेशी, और दूरदर्शी देशप्रेम है; इसी से वर्तमान सधेगा और भविष्य सँवरेगा।

अस्वीकरण (Disclaimer):
यह निबंध केवल शैक्षणिक संदर्भ और प्रेरणा हेतु प्रस्तुत किया गया है। पाठकों/विद्यार्थियों को सलाह दी जाती है कि वे इसे शब्दशः परीक्षा या प्रतियोगिताओं में न लिखें। इसकी भाषा, संरचना और विषयवस्तु को समझकर अपने शब्दों में निबंध तैयार करें। परीक्षा अथवा गृहकार्य करते समय शिक्षक की सलाह और दिशा-निर्देशों का पालन अवश्य करें।

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