मनुष्य अपने समय का नहीं, अपने स्वभाव का जीव है; समय बदलता रहता है, पर स्वभाव में बस गया कर्मधर्म ही जीवन-यात्रा का ध्रुवतारा बनता है। लाभ-हानि, जीवन-मरण, यश-अपयश—ये सभी मानो ऋतुओं की तरह आते-जाते हैं; कभी धूप सिर पर, कभी बदली आँखों में, कभी हवा में गूँजती बांसुरी, तो कभी दूर-दूर तक सन्नाटा। अनुभव सिखाता है कि नियति कभी-कभी ऐसी चाल चलती है कि सुचिंतित योजना भी ताश के पत्तों-सी बिखर जाती है; फिर भी मनुष्य का कद उसके धैर्य, विवेक और सेवा-भाव से आँका जाता है, न कि केवल सफलता की चमक से। कहावत है—मनुष्य सोचता है, ईश्वर हँसता है; पर यह हँसी उपहास नहीं, संकेत है कि परिणाम में आकंठ डूब जाने से पहले रास्ते पर भरोसा करें। पर्वतों को चीरती सुरंगें और समंदर पर तैरते पुल बताते हैं कि प्रयत्न से असंभव भी संभव होता है; और फिर महामारी, अतिवृष्टि, बाजार का उतार-चढ़ाव, निजी संकट—ये याद दिलाते हैं कि सब कुछ हमारे हाथ में भी नहीं। यही द्वंद्व जीवन का संगीत रचता है। प्रश्न यह नहीं कि भाग्य है या नहीं; प्रश्न यह है कि परिवर्तन के हाहाकार में मनुष्य का आचरण कितना सजग, कितना सहृदय और कितना जिम्मेदार है। ‘करत-करत अभ्यास के’ जो कर्मयोग रचा जाता है, वही व्यक्ति को भीतर से मजबूत बनाता है। परिणाम चाहे जैसे हों, मन की समता ही वह दीपक है जो आँधी में भी काँपता है, पर बुझता नहीं।
कथा-परंपराएँ और इतिहास बार-बार समझाते हैं कि शक्ति और प्रतिष्ठा स्थायी नहीं; जो आज सिरमौर है, कल परीक्षा की घड़ी में साधारण हो सकता है, और जो आज गुमनाम है, कल मानवीयता का पहरेदार बनकर उभर सकता है। वीरता केवल रणभूमि में तलवार उठाने का नाम नहीं; सबसे बड़ी वीरता है सच बोलना, न्याय का साथ देना, और परास्त हुए बिना परास्ति को स्वीकारना। कई बार घर-परिवार, मित्रता, करियर और समाज में पल-पल बदलती परिस्थितियाँ हमें ‘अभी’ को थाम लेने का मोह देती हैं, किन्तु ‘अभी’ भी बीतता है; बचता है तो केवल चरित्र का निशान। इसीलिए पुरखों ने कहा—धैरज धरम मित्र अरु नारी; ये संकट में कसौटी पर खरे उतरते हैं। जब कोई व्यक्ति उपलब्धियों पर सिर नहीं घुमाता और विफलताओं पर सिर नहीं झुकाता, तब भीतर एक शांत तल बनता है जहाँ आत्मसम्मान, विनम्रता और सेवा तीनों का संगम होता है। ये कहानियाँ हमें निष्क्रिय भाग्यवाद नहीं सिखातीं; वे कहती हैं कि नियति भले अपना खेल खेले, मनुष्य अपना खेल ईमानदारी से खेले। जो अपने अहं को साध लेता है, वह हार में भी हारता नहीं; क्योंकि हार उसके प्रयास की दीवार में एक कील बनकर उसे और मजबूत कर देती है।
जीवन का मूल संकट परिणाम-लिप्सा है; फल का आकर्षण अक्सर प्रक्रिया को कमजोर कर देता है। स्कूल की परीक्षा से लेकर नौकरी के लक्ष्य और रिश्तों की कसौटियों तक, हम अक्सर निष्कर्ष पढ़ लेते हैं और अध्याय का अध्ययन छोड़ देते हैं। किंतु अध्याय पढ़े बिना निष्कर्ष का अर्थ क्या? इसीलिए ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ का भाव समय से परे है—हक कर्म पर है, फल पर नहीं। इसका अर्थ भागना नहीं, बल्कि ‘लगना’ है; परिणाम-चिंता से मुक्त होकर श्रेष्ठतम प्रक्रिया पर जुट जाना। जैसे किसान बीज बोकर रोज़ मिट्टी उलटता, पानी देता, खरपतवार हटाता है—फसल की चिंता उसे आलसी नहीं बनाती, बल्कि सजग बनाती है। उसी तरह विद्यार्थी दैनिक स्वाध्याय, पुनरावर्तन, और ईमानदार अभ्यास से ‘सफलता की माशाल’ खुद बनता है। कार्यस्थल पर समयनिष्ठा, पारदर्शिता और टीम-भाव—ये तीन धागे मुकद्दर को मजबूत चोटी में गूँथते हैं। रिश्तों में संवाद, सम्मान और भरोसा—ये तीन पुल किसी भी गलतफहमी की नदी पर आसानी से टिक जाते हैं। जब प्रक्रिया-केन्द्रितता जीवन का सूत्र बनती है, तब यश-अपयश हवा के झोंके की तरह आते-जाते हैं; छत मजबूत हो तो झोंकों का काम बस परदे हिलाना रह जाता है, दीवारें नहीं।
आज के दौर में अनिश्चय की परिभाषा बदली है—डिजिटल दुनिया में एक पोस्ट रातों-रात प्रसिद्धि दे सकती है, और एक चूक बरसों की मेहनत को कटघरे में ला सकती है। स्टार्टअप का उत्थान-पतन, नौकरी बाजार की अस्थिरता, ऑनलाइन प्रतिष्ठा का तराजू, डेटा-सुरक्षा की चुनौतियाँ, कृत्रिम बुद्धिमत्ता के नए नियम, जलवायु-जनित आपदाएँ—ये सब बताती हैं कि बाहरी दुनिया ‘परिवर्तन’ नहीं, ‘परिवर्तन की रफ्तार’ है। ऐसे में बुद्धिमत्ता यही है कि जोखिम-प्रबंधन, मानसिक स्वास्थ्य और डिजिटल नागरिकता को जीवन-शैली का हिस्सा बनाया जाए। ‘धीरे-धीरे रे मना’ के साथ ‘सीखते रहो, बदलते रहो’ जोड़ना होगा। सूचना से पहले सत्यापन, असहमति में शिष्टता, और असफलता में आत्म-संवाद—ये तीन कौशल आज की कवच-कुंडल हैं। बीमा, आपात-निधि, कौशल-विविधीकरण और नेटवर्किंग—ये आधुनिक जमाने के चतुर्वेद हैं जो संकट में सहारा देते हैं। लाभ-हानि के इस झूले पर संतुलन साधने के लिए धन्यवाद-भाव, दिनचर्या, और नियमित व्यायाम भी महत्वपूर्ण हैं; स्वस्थ शरीर और स्थिर मन ही बदलते मौसम में स्थायी छत हैं।
यश-अपयश का लेखा अक्सर न्याय से नहीं, अवसर से भी लिखा जाता है; मंच पर भाषण देने वाले का नाम अख़बार में छपता है, पर पृष्ठभूमि में कुर्सियाँ सजाने वालों का पसीना नज़र नहीं आता। टीम का गोल स्ट्राइकर के नाम लिख दिया जाता है, पास देने वाले का श्रेय फुटनोट बन जाता है। इसलिए यश मिलने पर विनय, और अपयश आने पर समता—यही व्यक्तित्व की असली परीक्षा है। सोशल मीडिया के ‘वायरल’ युग में तालियाँ भी तेज हैं और ताने भी; आज का नायक कल ‘मीम’ बन सकता है, और आज का मौन साधक कल संस्थापक-पुरुष कहलाएगा। ऐसे समय में यह समझ बेहद जरूरी है कि बाहरी ताज भीतर की गरिमा से छोटा है। कहावत है—खाली बर्तन ज्यादा बजता है; जो जितना ऊँचा, वह उतना ही विनम्र। इसलिए श्रेय बाँटना सीखना चाहिए, गलती सामने आए तो ‘मेरी भूल’ कहना चाहिए, और शिकवे-शिकायत से पहले ‘सुधार-योजना’ रखनी चाहिए। यही संस्कृति संस्थाओं को टिकाऊ बनाती है और व्यक्ति को भरोसेमंद। जब यश धूल-सा हल्का और कर्तव्य पहाड़-सा भारी लगे, तब समझिए मंज़िल नज़दीक है।
हानि-लाभ की आँधी में धैर्य का वृक्ष वही है जिसे जड़ों ने पकड़ रखा हो—जड़ें हैं मूल्य। ईमानदारी, अनुशासन, करुणा, और उत्तरदायित्व—ये चार जड़ें जितनी गहरी, उतना वृक्ष तूफान में कम टूटता है। व्यावहारिक जीवन में इसका अर्थ है—लेन-देन में पारदर्शिता, समय का सम्मान, सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा, कर और नियमों का पालन, और कमजोर की मदद। जोखिम लेने का साहस जरूरी है, पर ‘नफा’ दिखे तो ‘नैतिकता’ न बुझे—यह सावधानी और भी जरूरी है। व्यापार में गुणवत्ता, शिक्षा में परिश्रम, विज्ञान में सत्यनिष्ठा, प्रशासन में निष्पक्षता, और कला में मौलिकता—ये पाँच स्तंभ किसी भी पेशे की प्रतिष्ठा बचाते हैं। नुकसान हो जाए तो सीख दर्ज करें, बीते लाभ पर इतराएँ नहीं; क्योंकि लाभ-हानि दोनों ही समय के मेहमान हैं। मन की सेहत के लिए कृतज्ञता-डायरी, स्क्रीन-समय की मर्यादा, और परिवार के साथ साझा भोजन—ये छोटी बातें बड़ी ढाल बनती हैं। जब मूल्य जीवन की रग-रग में बहते हैं, तब निर्णय कठिन हों, फिर भी दिमाग साफ़ रहता है और दिल हल्का।
धार्मिक-आध्यात्मिक संवेदना निष्क्रियता नहीं, सजगता का दूसरा नाम है। प्रार्थना, ध्यान, और सेवा—ये तीन साधन परिणाम-चिंता से घिरे मन को समता की छाँव में बिठा देते हैं। प्रार्थना अहं को झुकाती है, ध्यान विचारों को धोता है, सेवा आत्मा को चमकाती है। तब हानि-लाभ में ‘धन्यवाद’, यश-अपयश में ‘समता’, और जीवन-मरण में ‘श्रद्धा’ का रस टपकने लगता है। ‘राम नाम सच्चा है’ का मर्म यही है कि देह का अंत अंतिम सत्य नहीं; सत्य है कर्मों की सुगंध, जो पीछे छूटती है और आने वाली पीढ़ियों का मन बहलाती है, राह दिखाती है। इसीलिए अंतिम साधना ‘कल नहीं, आज’ है—आज जितना प्रेम, आज जितनी ईमानदारी, आज जितनी सेवा। आने वाला कल आज का पुत्र है; पिता जैसा, वैसा बेटा। इसलिए आज को सुंदर बनाने का सबसे सीधा तरीका है—खुद सुंदर बनना: विचार में, व्यवहार में, और व्यवसाय में।
पर्यावरण-नैतिकता भी इस विषय से गहराई से जुड़ी है; पृथ्वी की असंतुलित लाभ-हानि अंततः मानवता का ही नुकसान लिखती है। जलवायु परिवर्तन, पानी का संकट, प्रदूषण, और जैव-विविधता का क्षरण—ये केवल वैज्ञानिक शब्द नहीं, आने वाली पीढ़ी की धड़कनों पर लिखा भविष्य हैं। अतः ‘लाभ’ यदि धरती का ‘हानि’ बन जाए तो वह सच्चा लाभ नहीं; सच्चा लाभ वही जो समष्टि का हित साधे। ऊर्जा-संयम, सार्वजनिक परिवहन, कचरा-विभाजन, हरित-तकनीक, और स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा—ये कदम ‘निष्काम कर्म’ की आधुनिक व्याख्याएँ हैं। पेड़ लगाना केवल उत्सव नहीं; पानी देना, मिट्टी संभालना, और बचपौधों की रखवाली—यह पूरी प्रक्रिया है। जब समाज ‘मैं’ से ‘हम’ और ‘यहाँ’ से ‘धरती’ तक सोच बढ़ाता है, तब यश एक पुरस्कार नहीं, एक जिम्मेदारी बन जाता है; और यही जिम्मेदारी पीढ़ियों तक सुख का बीज बोती है। अंत में, मानव-जीवन का सार यह नहीं कि सब कुछ हमारे हाथ में है या कुछ भी नहीं; सार यह है कि जो हमारे हाथ में है, उसे हम कितनी निष्ठा से करते हैं। नियति की थाली में जो परोसा जाएगा, वह परोसा जाएगा; पर हम अपनी रसोई में ईमानदारी, करुणा और परिश्रम की तीन रोटियाँ रोज़ सेंक सकते हैं। लाभ मिल जाए तो बाँट दें, हानि हो जाए तो सीख लें, यश मिल जाए तो सिर झुका लें, अपयश आ जाए तो दिल न टूटने दें, जीवन मिले तो सार्थक करें, मृत्यु आए तो मुस्कुराकर कहें—चलो, काम पूरा हुआ। यही ‘समत्व योग उच्यते’ का सच्चा अर्थ है। राह कठिन हो तो भी कदमों में भरोसा रखें—कल की चिंता नहीं, आज का संकल्प; भीड़ की वाहवाही नहीं, अंतरात्मा की वाह-वाह। इसी ध्वनि के साथ जीवन-गीत गाया जाए तो लाभ-हानि, यश-अपयश, जीवन-मरण—all are seasons; और हम उस बाग़ के माली, जो हर मौसम में अपने वृक्षों की सेवा करते हैं—बिना शिकायत, बिना घमंड, बस पूरे मन से।
अस्वीकरण (Disclaimer):
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