वन-रक्षा (Forest Conservation: Protecting the Green Breath of Life)

प्रकृति ने मानव को असीमित उपहार दिए हैं, जिनमें सबसे अनमोल उपहार हैं वन। ये वन केवल पेड़ों का समूह भर नहीं हैं, बल्कि जीवन की साँसें हैं। जब हम प्रातः उठकर ताजी हवा में गहरी साँस लेते हैं, तो उसमें वनों का योगदान छिपा होता है। वृक्ष धरती के फेफड़े हैं, जो कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण कर हमें प्राणवायु ऑक्सीजन देते हैं। यदि धरती पर वृक्ष न रहें, तो जीवन की कल्पना करना असंभव हो जाएगा। यह कहावत ठीक ही कही गई है—“वन हैं तो जीवन है, वन नहीं तो विनाश है।” आज की भागदौड़ भरी दुनिया में जब प्रदूषण अपने चरम पर है, तब वन ही हमें एक सुरक्षित और स्वस्थ वातावरण प्रदान करने वाले स्तंभ हैं। इनका महत्व समझना और इनकी रक्षा करना हर मनुष्य का नैतिक दायित्व बन जाता है।

वनों के बिना पृथ्वी बंजर मरुस्थल जैसी हो जाएगी। हरे-भरे पेड़ों से ढकी धरती जब आँधी-पानी का सामना करती है, तब वृक्ष अपनी जड़ों से मिट्टी को थाम लेते हैं और बाढ़, कटाव जैसी समस्याओं से रक्षा करते हैं। जब वर्षा की बूँदें वृक्षों की पत्तियों से टकराकर धीरे-धीरे धरती पर गिरती हैं, तब जल का समुचित संरक्षण होता है और भूमिगत जल का स्तर भी सुरक्षित रहता है। दूसरी ओर यदि वृक्ष न हों, तो बारिश की बूँदें सीधे मिट्टी को बहाकर उपजाऊ भूमि को नष्ट कर देंगी। यही कारण है कि प्राचीन समय से हमारे ऋषि-मुनि वृक्षों को ‘धरती का आभूषण’ कहते आए हैं। वास्तव में वन ही धरती की हरियाली और उपजाऊपन का आधार हैं।

वृक्ष केवल पर्यावरण को शुद्ध करने तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि ये अनेक जीव-जंतुओं का आश्रय स्थल भी हैं। पंछियों का मधुर संगीत, गिलहरियों की किलकारियाँ और पशुओं का विचरण इन्हीं वनों में संभव है। यदि ये वन न हों, तो पक्षियों के घोंसले कहाँ बसेंगे और पशुओं का जीवन कैसे बचेगा? जीव-जंतु और पेड़-पौधे एक-दूसरे के पूरक हैं। शाकाहारी जीव पौधों पर निर्भर रहते हैं और मांसाहारी जीव उन्हीं पर आश्रित शाकाहारी जीवों पर। यह परस्पर संबंध एक सुंदर संतुलन बनाए रखता है। यदि यह संतुलन बिगड़ता है तो प्रकृति का चक्र भी असंतुलित हो जाता है। इसलिए वनों की रक्षा केवल मानव के लिए ही नहीं, बल्कि समस्त प्राणी-जगत के लिए अनिवार्य है।

वनों के कटने से तापमान लगातार बढ़ रहा है। धरती पर हरियाली घटने से वातावरण गर्म होता जा रहा है और ग्लोबल वार्मिंग जैसी समस्या दिन-प्रतिदिन विकराल रूप ले रही है। जब पेड़-पौधे वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं, तभी वातावरण संतुलित रहता है। लेकिन जब जंगल काटे जाते हैं तो यह गैस बढ़ती जाती है, जिसके परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन का संकट सामने आता है। कभी असमय वर्षा, तो कभी सूखा—ये सब वनों के अंधाधुंध विनाश के ही परिणाम हैं। इसीलिए कहा गया है—“वन विनाश, जीवन का सर्वनाश।” हमें समझना होगा कि प्राकृतिक आपदाएँ केवल ईश्वर की इच्छा नहीं हैं, बल्कि कहीं-न-कहीं मानव की लापरवाह गतिविधियों का परिणाम भी हैं।

वनों से हमें प्रत्यक्ष रूप से असंख्य संसाधन प्राप्त होते हैं। लकड़ी, औषधियाँ, फल-फूल, रेजिन, गोंद और जड़ी-बूटियाँ वनों का ही उपहार हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आजीविका का बड़ा हिस्सा वनों पर निर्भर करता है। आदिवासी समाज तो सीधे-सीधे जंगलों से जीवन-यापन करता है। उनके गीत, नृत्य और परंपराएँ भी वनों से गहरे जुड़े हुए हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जंगल केवल प्राकृतिक संपदा ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक धरोहर भी हैं। जिस प्रकार किसान खेतों को जीवन देता है, उसी प्रकार वन सम्पूर्ण मानवता को जीवन प्रदान करते हैं।

वनों के संरक्षण का संबंध सीधे मानव स्वास्थ्य से भी है। पेड़ प्रदूषण को रोकते हैं, धूल को थामते हैं और वातावरण को ठंडा रखते हैं। गर्मियों की तपिश में जब वृक्षों की छाँव हमें राहत देती है, तब हमें उनकी वास्तविक महत्ता का अनुभव होता है। यही नहीं, वृक्ष वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया से वातावरण में नमी बनाए रखते हैं, जिससे वर्षा चक्र नियमित चलता रहता है। यदि ये न हों तो बादलों का बनना भी कठिन हो जाएगा। सोचिए, यदि वर्षा ही न हो तो धरती का क्या हाल होगा? न खेत लहलहाएँगे, न नदियाँ बहेंगी और न ही जीवन पनपेगा। इसीलिए वृक्ष धरती के वास्तविक संरक्षक कहे जाते हैं।

आज के समय में जनसंख्या वृद्धि और शहरीकरण वनों के विनाश का सबसे बड़ा कारण है। लोग घर बनाने, उद्योग लगाने और खेती के विस्तार के लिए जंगलों को काटते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप प्राकृतिक असंतुलन बढ़ता जा रहा है। शहरों की हवा जहरीली हो गई है, पानी दूषित हो चुका है और गाँवों की हरियाली धीरे-धीरे मिट रही है। यह स्थिति सचेत करने वाली है। यदि अभी भी हम नहीं जागे तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें माफ नहीं करेंगी। कहा भी गया है—“जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे।” यदि हम पेड़ों को काटेंगे तो आने वाली पीढ़ियों को केवल बंजर धरती और प्रदूषित वातावरण ही मिलेगा।

वनों के बिना जीवन का चक्र अधूरा है। पृथ्वी पर संतुलन बनाए रखने के लिए वैज्ञानिकों ने भी सुझाव दिया है कि कम से कम 33% भू-भाग पर वन होने चाहिए। दुर्भाग्यवश यह अनुपात आज बहुत कम हो चुका है। कहीं वनाग्नि से जंगल नष्ट हो रहे हैं, तो कहीं अवैध कटाई उन्हें खत्म कर रही है। ऐसी स्थिति में हमें ठोस कदम उठाने होंगे। केवल भाषणों और नारों से काम नहीं चलेगा। वास्तविक प्रयास तभी सफल होंगे जब हर व्यक्ति अपने जीवन में पेड़ लगाने और उनकी रक्षा करने को अपना कर्तव्य माने।

बचपन से हमें पेड़ लगाने की प्रेरणा दी जाती है, परंतु केवल लगाने से काम नहीं चलता, उनकी देखभाल भी आवश्यक है। जिस तरह एक शिशु को पालने के लिए माता-पिता की देखभाल चाहिए, उसी प्रकार वृक्षों को भी निरंतर देखभाल की आवश्यकता होती है। पेड़ लगाने के बाद यदि उन्हें समय पर पानी और सुरक्षा न मिले तो वे सूख जाएँगे। इसीलिए वृक्षारोपण केवल एक दिन का कार्यक्रम न होकर जीवनभर का संकल्प होना चाहिए। हमें यह सोच अपने भीतर जगानी होगी कि—“एक पेड़, सौ जीवन।”

वनों की रक्षा का महत्व केवल प्राकृतिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी है। देश की अर्थव्यवस्था में वनों का योगदान कम नहीं है। औषधीय पौधों के निर्यात से देश को विदेशी मुद्रा मिलती है। लकड़ी, कागज और रेजिन जैसी चीजें अनेक उद्योगों के लिए आधार हैं। यदि ये वन समाप्त हो जाएँ तो न केवल पर्यावरण बिगड़ेगा, बल्कि हमारी आर्थिक स्थिति भी कमजोर होगी। इसलिए कहा गया है कि “जंगल सोने से भी बढ़कर है।”

आज की नई पीढ़ी के सामने चुनौती यह है कि वह किस प्रकार आधुनिक विकास और प्राकृतिक संरक्षण के बीच संतुलन बनाए। तकनीक और प्रगति जरूरी हैं, परंतु इनके नाम पर वनों का विनाश करना आत्मघाती कदम है। वर्तमान समय में जब कृत्रिम बुद्धिमत्ता और औद्योगिक क्रांति की बातें हो रही हैं, तब हमें यह भी याद रखना होगा कि बिना स्वच्छ हवा और हरियाली के यह सब बेकार है। बच्चों को बचपन से ही पर्यावरण शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वे प्रकृति से जुड़ाव महसूस करें और उसे सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी निभाएँ।

वनों की रक्षा के लिए सामाजिक जागरूकता सबसे बड़ा हथियार है। जब लोग मिलकर वृक्षों की रक्षा करेंगे, तभी परिवर्तन आएगा। गाँव-गाँव और शहर-शहर में हर व्यक्ति यदि अपने जीवन में कम से कम एक पेड़ लगाने का संकल्प ले, तो धरती का स्वरूप बदल सकता है। पेड़ केवल पेड़ नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों की अमानत हैं। जैसे हम अपने बच्चों को शिक्षा और संस्कार देते हैं, उसी तरह उन्हें एक स्वच्छ वातावरण देना भी हमारी जिम्मेदारी है।

वनों की महत्ता को नकारना अज्ञानता होगी। ये हमारे जीवन की डोर हैं, जो हमें प्रकृति से जोड़ते हैं। आज का समय हमें चेतावनी दे रहा है कि यदि वनों की रक्षा नहीं की गई तो भविष्य अंधकारमय होगा। धरती का संतुलन बिगड़ेगा और जीवन संकट में पड़ जाएगा। इसीलिए हमें यह संकल्प लेना होगा कि हम वनों की रक्षा करेंगे और हरियाली को जीवन का मूल मंत्र बनाएँगे।

अंत में यही कहा जा सकता है कि वन हमारी धरोहर हैं, इन्हें बचाना हम सबका कर्तव्य है। यदि हम आज वनों की रक्षा करेंगे तो कल हमारे बच्चे ताजी हवा में साँस ले सकेंगे, स्वच्छ जल पी सकेंगे और एक स्वस्थ जीवन जी सकेंगे। यही सच्चा उपहार होगा जो हम उन्हें देंगे। सच ही कहा गया है—“धरती को हरा-भरा बनाओ, जीवन में खुशियाँ पाओ।”

अस्वीकरण (Disclaimer):
यह निबंध केवल शैक्षणिक संदर्भ और प्रेरणा हेतु प्रस्तुत किया गया है। पाठकों/विद्यार्थियों को सलाह दी जाती है कि वे इसे शब्दशः परीक्षा या प्रतियोगिताओं में न लिखें। इसकी भाषा, संरचना और विषयवस्तु को समझकर अपने शब्दों में निबंध तैयार करें। परीक्षा अथवा गृहकार्य करते समय शिक्षक की सलाह और दिशा-निर्देशों का पालन अवश्य करें।

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