भारत त्योहारों की धरती है, जहाँ हर ऋतु और हर मास कुछ नया लेकर आता है। इन्हीं पर्वों में विजयादशमी, जिसे आम जनमानस दशहरा के नाम से जानते हैं, अपने भीतर धर्म की विजय, अधर्म के अंत, और मानव मूल्य की पुनर्स्थापना की चेतना लिए हुए आता है। यह पर्व आश्विन शुक्ल दशमी को मनाया जाता है और ‘विजय’ तथा ‘दशमी’ शब्दों से मिलकर बना है, जो इस दिन की ऐतिहासिक और आध्यात्मिक गरिमा को दर्शाता है।
इस पर्व की जड़ें रामायण काल से जुड़ी हैं, जब भगवान श्रीराम ने रावण का वध कर सीता माता को मुक्त कराया था। यह केवल एक युद्ध की नहीं, बल्कि सत्य, त्याग और मर्यादा की स्थापना की कहानी है। दशहरा हमें याद दिलाता है कि जब अन्याय सिर उठाता है, तब धर्म अपने अस्त्र उठाता है — और अंततः विजय सदैव सच्चाई की होती है।
इस दिन भारत के नगरों, कस्बों और गाँवों में रामलीला का मंचन होता है। राम के जीवन से जुड़ी घटनाओं को नाटकीय शैली में प्रस्तुत किया जाता है — बालकांड से लेकर लंका विजय तक। जैसे-जैसे रावण के पुतले जलाए जाते हैं, लोगों के मन में यह विश्वास और भी दृढ़ हो जाता है कि झूठ कितना भी बलवान हो, सत्य उसे पराजित कर ही रहता है।
दशहरे के दिन हर घर में विशेष उत्साह होता है। लोग घरों की सफाई करते हैं, नए वस्त्र पहनते हैं, मिठाइयाँ बनती हैं और शस्त्रों की पूजा होती है। यह परंपरा केवल क्षत्रियों तक सीमित नहीं रही, बल्कि हर वर्ग में यह मान्यता व्याप्त है कि शक्ति का प्रयोग तभी श्रेष्ठ है जब वह धर्म के पथ पर हो। ‘शमी पूजन’ की भी परंपरा है, जो पांडवों के वनवास काल से जुड़ी हुई है। यह दिन हमें अपने संघर्ष और धैर्य की स्मृति कराता है।
बाजारों में रौनक, मेलों की चहल-पहल, बच्चों की किलकारियाँ और झाँकियों का सौंदर्य इस पर्व को लोक-सांस्कृतिक उत्सव बना देता है। विशेषकर राम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान की वेशभूषा में सजे बच्चे जब झाँकियों में निकलते हैं, तो पूरा वातावरण भक्ति और उल्लास से भर उठता है।
विजयादशमी का मर्म केवल पौराणिक नहीं है, इसका संदेश आज के युग में भी उतना ही प्रासंगिक है। आज जब भ्रष्टाचार, असत्य और स्वार्थ के बादल हमारे समाज पर छा रहे हैं, तब यह पर्व हमें आह्वान करता है — “सत्य पथ पर चलो, अन्याय से संघर्ष करो, और नैतिक मूल्यों को मत त्यागो।” यह पर्व केवल राम की विजय नहीं, आदर्शों की पुनर्स्थापना का प्रतीक है।
वर्तमान युग में, जब तकनीक के नाम पर संवेदनाएँ खो रही हैं और लोग आत्मकेंद्रित होते जा रहे हैं, विजयादशमी हमें आत्मचिंतन का अवसर देती है। यह पर्व हमसे कहता है — “पहले अपने भीतर के रावण को पहचानो।” अहंकार, क्रोध, लालच, और द्वेष — यही आज के युग के रावण हैं, जिन्हें जलाना ज़रूरी है। “परिवर्तन बाहर नहीं, भीतर से शुरू होता है।”
दशहरा हमें यह सिखाता है कि सामूहिक चेतना, लोक आस्था और नैतिक साहस किसी भी अन्यायी ताकत को परास्त कर सकते हैं। जिस प्रकार भगवान राम ने सीमित संसाधनों के बावजूद विजय प्राप्त की, वैसे ही आज का युवा भी अगर अपने चरित्र, परिश्रम और संयम को साथ ले तो जीवन में हर असंभव संभव हो सकता है।
अंत में, विजयादशमी केवल एक पर्व नहीं, बल्कि हर युग में प्रासंगिक जीवन-दर्शन है। यह हमें सिखाता है कि सत्य, भले देर से, परंतु अवश्य जीतता है — “सत्यमेव जयते।” जो भी बुराई के मार्ग पर चलता है, उसका अंत निश्चित होता है — चाहे वह रावण हो या कोई और।
निष्कर्षतः, विजयादशमी का पर्व हमारे लिए आस्था का दीपक, संस्कारों का मार्गदर्शक और मानवता का प्रकाशस्तंभ है। आइए, दशहरे पर केवल पुतले न जलाएँ, बल्कि अपने भीतर की बुराइयों को भी राख कर दें और एक उज्जवल, सत्यनिष्ठ और न्यायप्रिय समाज की ओर कदम बढ़ाएँ। यही विजयादशमी का सच्चा संदेश है।
अस्वीकरण (Disclaimer):
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