सच्ची मेहनत का फल (The Magical Tree of Hard-Earned Coins)

(यह कहानी एक प्राचीन लोककथा से प्रेरित है, जो हमें ईमानदारी और परिश्रम की सच्ची महिमा सिखाती है।)

बहुत समय पहले की बात है। मधुरपुर नाम के एक छोटे से नगर में शिवानंद नामक एक विद्वान ब्राह्मण रहते थे। वे सरल स्वभाव के, ईमानदार और मेहनती व्यक्ति थे। किन्तु दुर्भाग्यवश, समय ने करवट बदली और वे घोर निर्धनता में आ गए।

राजा से सहायता की याचना

जब उनके पास खाने तक के पैसे न बचे, तो वे नगर के राजा विक्रमसेन के पास सहायता माँगने पहुँचे। राजा उदार थे और उन्होंने ब्राह्मण को सौ स्वर्ण मुद्राएँ देने का प्रस्ताव किया।

किन्तु शिवानंद ने राजा से विनम्रतापूर्वक कहा, “महाराज, मुझे राजकोष से मिली दान-दक्षिणा नहीं चाहिए। यदि आप मुझे कुछ देना ही चाहते हैं, तो अपनी ईमानदारी और मेहनत से कमाए हुए धन का एक छोटा सा हिस्सा दे दें, भले ही वह एक मामूली सिक्का ही क्यों न हो।”

राजा को यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ। उन्होंने कभी ऐसी अनोखी माँग नहीं सुनी थी। उन्होंने ब्राह्मण से दो दिन बाद आने के लिए कहा और स्वयं इस विषय में सोचने लगे।

राजा की कठिन परीक्षा

अगले ही दिन, राजा ने अपने राजसी वस्त्र त्याग दिए और साधारण किसान जैसे कपड़े पहनकर भेष बदल लिया। बिना किसी अंगरक्षक के, वे पास के एक गाँव की ओर चल पड़े। राह में उन्होंने कई लोगों को काम करते देखा, लेकिन कोई भी उन्हें पहचान न सका।

कुछ दूरी पर राजा ने सड़क निर्माण में लगे मजदूरों को देखा और वहाँ के ठेकेदार से निवेदन किया, “मुझे भी कुछ काम दे दीजिए।”

ठेकेदार ने उनकी ओर देखा और कहा, “क्या तुम खुदाई कर सकते हो?”

“हाँ, मैं कर लूँगा,” राजा ने उत्तर दिया।

ठेकेदार ने उन्हें एक कुदाल थमा दी और कहा, “यह लो, उस जगह गड्ढा खोदो और मिट्टी निकालकर यहाँ डालो।”

पहली बार कठिन परिश्रम

राजा ने जीवन में पहली बार इस प्रकार का शारीरिक श्रम किया था। कुछ ही देर में उनकी साँस फूलने लगी, हथेलियों में छाले पड़ गए और पूरा शरीर पसीने से तरबतर हो गया। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और पूरी शक्ति से कार्य करते रहे।

जब ठेकेदार ने उनकी दशा देखी, तो हँसते हुए बोला, “लगता है तुमने कभी मेहनत का काम नहीं किया! आज यह करने का विचार कैसे आया? खैर, यह लो तुम्हारी मजदूरी।”

कहकर उसने राजा की ओर चार आने का सिक्का उछाल दिया और फिर किसी और काम में लग गया। राजा ने वह सिक्का उठाया और मन ही मन गर्व और प्रसन्नता से भर गए। यह पहली बार था जब उन्होंने अपने श्रम से अर्जित धन को अपने हाथों में महसूस किया।

ब्राह्मण को मेहनत की कमाई सौंपना

अगले दिन, राजा ने राजमहल में फिर से अपना राजसी वेष धारण किया और दरबार में बैठ गए। थोड़ी ही देर में शिवानंद वहाँ पहुँचे। राजा ने अपनी जेब से चार आने का वह मेहनत का सिक्का निकाला और उन्हें सौंपते हुए बोले, “यह लो, यह मेरी गाढ़ी मेहनत की कमाई है।”

ब्राह्मण ने आदरपूर्वक वह सिक्का लिया और राजा को प्रणाम करके अपने घर लौट गए।

सिक्के से उग आया चमत्कारी वृक्ष

घर पहुँचकर, उन्होंने वह सिक्का अपने आँगन में तुलसी के पौधों के बीच गाड़ दिया। जैसे ही सिक्का मिट्टी में गया, वह बीज बनकर अंकुरित हो गया। कुछ ही दिनों में वहाँ एक छोटा पौधा निकला, और फिर देखते ही देखते वह एक विशाल वृक्ष बन गया।

राजा के दिए हुए परिश्रम से अर्जित सिक्के से उगा यह वृक्ष चमचमाते सिक्कों से भर गया। उसकी शाखाएँ सोने-चाँदी के सिक्कों के बोझ से झुक गईं। इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए नगर के लोग इकट्ठे होने लगे।

राजा की जिज्ञासा और परीक्षण

यह खबर जब राजा विक्रमसेन तक पहुँची, तो उन्होंने सैनिकों को इसकी सच्चाई जाँचने भेजा। सैनिकों ने लौटकर बताया, “महाराज, यह बात सत्य है! ब्राह्मण के आँगन में सचमुच सिक्कों से लदा पेड़ खड़ा है।”

यह सुनकर राजा स्वयं ब्राह्मण के घर पहुँचे और उनसे बोले, “शिवानंद, यह तो चमत्कार है! यह पेड़ मेरे सिक्के से कैसे उग आया? क्या मैं इसे अपने महल में लगवा सकता हूँ?”

ब्राह्मण ने मुस्कराकर उत्तर दिया, “महाराज, आपने जो सिक्का मुझे दिया था, वह आपके कठिन परिश्रम का फल था। श्रम का मूल्य कभी व्यर्थ नहीं जाता। इस पेड़ ने यह सिद्ध कर दिया। किन्तु यदि आप इस वृक्ष को अपने महल में ले जाना चाहते हैं, तो सिर्फ उतने ही सिक्के लीजिए जितने आपने अर्जित किए थे—यानी मात्र चार आने।”

राजा इस चतुर उत्तर से निरुत्तर हो गए। उन्होंने महसूस किया कि परिश्रम से कमाया गया धन ही सच्चा धन होता है। वे बिना कोई उत्तर दिए चुपचाप अपने महल लौट आए।


यह कहानी हमें सिखाती है कि किसी भी धन की असली कीमत तभी होती है जब वह परिश्रम से अर्जित किया जाए। केवल दान-दक्षिणा या राजसी ठाठबाट से कोई महान नहीं बनता, बल्कि सच्चा सुख और गौरव ईमानदार मेहनत में ही निहित होता है।

Disclaimer:

This story has been adapted and rewritten based on an Indian folktale. The names, characters, and events have been modified to create a unique and original retelling while preserving the essence of the moral lesson. This version has been independently crafted to ensure originality and does not intend to infringe upon any copyrights or intellectual property rights of the original publication. Any resemblance to real persons, places, or events is purely coincidental.

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