समाज-सेवा (True Humanity: The Power of Selfless Service)

जीवन केवल श्वासों की आवाजाही नहीं, अर्थपूर्ण उद्देश्य की सतत खोज है; बिना उद्देश्य की दौड़ वैसी ही है जैसे बिना पतवार की नाव भँवर में भटकती रहे। मनुष्य का असली कद तब दिखता है जब वह अपने सुख-सुविधाओं की चौहद्दी से निकलकर दूसरों के दर्द की ओर हाथ बढ़ाता है, क्योंकि ‘बूँद-बूँद से सागर’ भरता है और ‘बड़ा काम छोटे-छोटे कर्मों’ से पूरा होता है। घर-परिवार, पड़ोस, विद्यालय और कार्यस्थल—हर जगह जब कोई व्यक्ति समय, श्रम और संसाधन का थोड़ा हिस्सा समाज के नाम कर देता है, तब उसका निजी जीवन भी उजाले से भर उठता है। कहावत है—जहाँ चाह, वहाँ राह; पर चाह तभी सच्ची कहलाती है जब वह केवल ‘मेरे लिए’ नहीं, ‘हम सब के लिए’ हो। यही भाव मनुष्यता का केंद्रीय सूत्र है, जो बताता है कि अपने लिए तो पशु-पक्षी भी जी लेते हैं, पर मानव वही है जो अपने हिस्से का उजाला बाँटकर दूसरों की रात छोटी कर दे। जब किसी अनजान की मदद करने से मन हल्का हो, किसी पीड़ित को सहलाने से आँखें भीग जाएँ, किसी अकेले के हाथ थामने से कदमों में रफ़्तार आ जाए—समझ लेना चाहिए कि इंसान भीतर से इंसान हो गया है। ऐसे ही छोटे-छोटे त्याग, जिनमें समय पर पहुँचना, वचन निभाना, और जरूरतमंद की ढाल बनना शामिल है, जीवन को ऊँचाई भी देते हैं और गहराई भी। ‘कम बोलो, ज़्यादा करो’ का सरल-सा मंत्र ही इस यात्रा का पहला और पक्का कदम है।

भारतीय सांस्कृतिक चेतना में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का भाव घर-घर गाया जाता रहा है; यह केवल पंक्ति नहीं, जीवन-दर्शन है जो बताता है कि धरती एक परिवार है और सब उसके सदस्य हैं। पुरानी कथाओं में परोपकार के अनगिन दीपक जलते नज़र आते हैं—कहीं कोई अपनी अस्थियों का दान देकर अन्याय का अंत कर देता है, तो कहीं कोई राजधर्म से आगे बढ़कर एक नन्हे प्राणी की जान बचाने के लिए अपना सब कुछ दाँव पर लगा देता है। इन प्रसंगों का सार यह नहीं कि असाधारण दिखावटी बलिदान ही महानता है; सार यह है कि ‘जीवन तब अर्थवान है जब किसी और का जीवन सुरक्षित, सशक्त और शांत हो।’ काव्य-संस्कृति भी इसी रस से भीगी है—साधु को कपास की तरह बताया गया है जो खुद जलन सहकर दूसरों को ढँकता है; कवि के शब्दों में यही आदर्श है। कहावत कहती है—त्याग से तेज बनता है; इसलिए जिसने अपने अहं, आलस्य, और लालच पर लगाम कस ली, उसने मनुष्यता का सबसे कठिन युद्ध जीत लिया। ऐसी कहानियाँ और उक्तियाँ हमें केवल भावुक नहीं करतीं; वे दिशा दिखाती हैं कि परोपकार कोई अवसरवादी नारा नहीं, बल्कि रोज़-रोज़ की आदत है—रोटी का एक टुकड़ा बाँटना, रास्ते में गिरा कूड़ा उठाना, और किसी अनदेखे के लिए दरवाज़ा थाम लेना। यही आदतें धीरे-धीरे समाज की आत्मा को मजबूत करती हैं।

महान व्यक्तित्व इसलिए महान कहे गए कि उन्होंने अपने को दुनिया के दुख-सुख से अलग नहीं किया; उन्होंने ‘मैं’ को ‘हम’ में पिघला दिया। किसी ने पीड़ित को न्याय दिलाने के लिए अपनी सुविधा दाँव पर लगाई, तो किसी ने बंटे समाज को जोड़ने के लिए नफरत की आँधी के बीच शांति का दीया जला दिया। कई संतों और सुधारकों ने जाति, धर्म, वर्ग और भाषा के खांचे तोड़कर मानवता को एक धागे में पिरोने की कोशिश की; किसी ने रोगियों की सेवा में रातें गँवाईं, तो किसी ने शिक्षा का दीप लेकर अंधेरे गाँवों तक पगडंडियाँ बनाई। ‘रास्ता वही लंबा चलता है जिसमें थक कर भी कदम नहीं रुकते’—उनके जीवन ने यही सिखाया। ऐसे आदर्श केवल इतिहास के पन्नों में बंद नहीं; वे हर मोहल्ले में दिख जाते हैं—वह शिक्षक जो बिना शुल्क के बच्चों को पढ़ा देता है, वह पड़ोसी जो रात में अस्पताल तक साथ जाता है, वह युवा जो रक्तदान के मैसेज पर तुरंत पहुँच जाता है। परोपकार का अर्थ केवल धन देना नहीं; समय, कौशल, और संवेदना भी दान हैं। ‘एक हाथ दे, दूसरा भूल’—यह सुघर सलाह बताती है कि सच्चा दान कभी ढोल नहीं पीटता। यही निस्पृहता परोपकार की आत्मा है और इंसानियत का ईमान भी।

‘मरना’ शब्द इस प्रसंग में केवल देह-त्याग नहीं; यह अपने अहंकार, स्वार्थ और आलस्य का रोज़-रोज़ संस्कार है। जो अपने आराम का थोड़ा-सा हिस्सा छोड़कर किसी की मदद करता है, वह ‘जीते-जी त्याग’ की कठिन साधना करता है। रोज़मर्रा के फैसलों में यही साधना झलकती है—ट्रैफिक नियम मानते हुए एम्बुलेंस के लिए जगह बनाना, भारी बैग उठाए बुज़ुर्ग को सहारा देना, लाइन में नियम निभाते हुए किसी विकलांग को आगे कर देना, या परीक्षा में ईमानदार रहना। ‘ईंट से ईंट बजाना’ आसान है, पर ‘ईंट पर ईंट रखकर’ पुल बनाना कठिन; इसलिए नकारात्मकता से जोड़ तोड़ करने के बजाय सकारात्मकता से जोड़ बनाना जरूरी है। परिवार में भी परोपकार की शुरुआत होती है—बड़ों के साथ आदर, बच्चों के साथ धैर्य, और साथियों के साथ सहयोग; घर की यह छोटी दुनिया ही समाज का पहला स्कूल है। जो घर में दया सीखता है, वही सड़क पर धैर्य दिखाता है; जो घर में अनुशासन सीखता है, वही दफ्तर में ईमानदारी निभाता है। इसीलिए कहा गया है—‘जैसा बोओगे, वैसा काटोगे’; करुणा के बीज बोएँगे तो भरोसे की फसल लहलहाएगी। यही भरोसा इंसान को इंसान से जोड़ता है।

आज के डिजिटल और वैश्विक युग में परोपकार का रूप नया है, पर सार वही—जिम्मेदारी और संवेदना। ऑनलाइन दुनिया में झूठ-सच साथ दौड़ते हैं; इसलिए तथ्य-जांच करना, घृणा-भाषा से दूर रहना, और सभ्य संवाद करना ‘डिजिटल परोपकार’ है। संकट में क्राउडफंडिंग से किसी मरीज की मदद करना, ई-लाइब्रेरी के जरिए दूरदराज़ के बच्चों को पढ़ाना, या आपदा के समय स्वेच्छासेवा के नेटवर्क से राहत पहुँचाना—यह सब आधुनिक सेवा के पुल हैं। महामारी जैसे दौर में स्वास्थ्यकर्मियों, सफाईकर्मियों और आवश्यक सेवाओं के योद्धाओं ने दिखाया कि ‘कर्तव्य’ ही सबसे बड़ा दान है; उनके साहस ने लाखों घरों में आशा का दिया जलाए रखा। पर्यावरण क्षेत्र में भी परोपकार की नई पाठशाला खुली है—पेड़ लगाना, जल-संरक्षण, कचरा-विभाजन, और सार्वजनिक परिवहन का चयन—ये सब धरती माता के प्रति दया के आधुनिक तरीके हैं। ‘जितनी चादर, उतने पैर’ की समझ संसाधनों के न्यायपूर्ण उपयोग की रीढ़ है। जब तकनीक हाथ में और नेकी साथ में हो, तब सेवा की रफ्तार भी तेज होती है और दिशा भी सही रहती है।

युवा पीढ़ी परोपकार की सबसे प्रबल शक्ति है; उसके पास ऊर्जा, कल्पना और साहस है। स्कूल-कॉलेजों में सेवा-समूह, नवाचार क्लब और सामुदायिक परियोजनाएँ युवाओं की लगन को रास्ता देती हैं—कोई गाँव में विज्ञान प्रयोगशाला खड़ा करता है, कोई ऐप से लोक-कला को बाजार दिलाता है, कोई कम-लागत जल-शुद्धि का समाधान बनाता है। ‘हार कर बैठ जाना’ उनकी फितरत नहीं; वे गिरकर उठना जानते हैं, और हर हार को अगली जीत की सीढ़ी बना लेते हैं। करियर चुनते समय भी वे ‘मेरी नौकरी’ नहीं, ‘मेरा प्रभाव’ पूछें—यह नया प्रश्न उन्हें सेवा-उद्यमिता, सामाजिक नवाचार और जिम्मेदार नेतृत्व की ओर मोड़ देता है। खेल के मैदान से टीमभाव, संगीत से समरसता, और वाद-विवाद से तर्कशीलता—ये तीन अभ्यास उन्हें परिपक्व नागरिक बनाते हैं। कहावत है—‘नया चावल जल्दी पकता है’; पर ठीक पकाने के लिए धीमी आँच चाहिए—यही धीमी आँच है अनुशासन, धैर्य और निरंतर अभ्यास। जब युवा ‘मैं क्या लूँ?’ से ‘मैं क्या दूँ?’ तक पहुँचते हैं, तब समाज का भविष्य सुनहरा हो उठता है।

समाज में समता और सद्भाव परोपकार की अनिवार्य शर्तें हैं; भेदभाव, कट्टरता और पूर्वाग्रह सेवा की धारा को गंदा कर देते हैं। मनुष्यता का अर्थ है—हर व्यक्ति को गरिमा से देखना, हर समुदाय को सम्मान देना, और हर विविधता को अवसर समझना। स्त्री-पुरुष समान भागीदारी, दिव्यांगों की सुगमता, और आर्थिक रूप से कमज़ोर जनों का सशक्तीकरण—ये सब परोपकार के ठोस आयाम हैं। न्याय के बिना दया अपूर्ण है; इसलिए संस्थाओं में पारदर्शिता, कामकाज में ईमानदारी, और कानून के प्रति अनुशासन—ये तीन स्तंभ सेवा को टिकाऊ बनाते हैं। ‘रस्सी जल गई, बल नहीं गया’ वाली हालत तब बनती है जब पुरानी बुराइयाँ नाम बदलकर लौट आती हैं; अतः सजग नागरिकता हर दौर में जरूरी है। मतभेद होना स्वाभाविक है, मनभेद नहीं; ‘मानो तो पत्थर देव, न मानो तो देव पत्थर’—इस पुरानी सीख का अर्थ है कि दृष्टि बदले तो दुनिया बदलती है। परोपकार उसी बदलती दृष्टि का नाम है।

आर्थिक स्वावलंबन के बिना सेवा का पहिया अधूरा है; अतः ‘कमाओ भी, बाँटो भी’ का संतुलन जरूरी है। उद्यम अगर ‘लाभ’ के साथ ‘लोक हित’ जोड़ ले, तो रोज़गार भी बढ़ता है और समाज भी सँवरता है। छोटे उद्यमों में नैतिक व्यापार, स्थानीय कारीगरों का सम्मान, और गुणवत्तापूर्ण उत्पाद—ये सब ‘ईमान की दुकान’ के बोर्ड हैं। कॉर्पोरेट जगत जब शिक्षा, स्वास्थ्य, कौशल-विकास और पर्यावरण में निवेश करता है, तब ‘परोपकार’ दान से आगे बढ़कर ‘भागीदारी’ बन जाता है। कर देना, बिल लेना, और नियम निभाना—ये भी परोक्ष सेवा हैं; क्योंकि इससे राज्य की सेवाएँ मज़बूत होती हैं और सबसे कमजोर तक पहुँच बनती है। ‘एक और एक ग्यारह’—सहकारिता की यही जादुई गिनती छोटे प्रयासों को बड़ी ताकत में बदल देती है। जब अर्थव्यवस्था और दया साथ चलें, तभी ‘विकास’ का मतलब सिर्फ़ इमारतें नहीं, मुस्कानें भी होता है।

अंततः, मनुष्यता का सार यही है कि जीवन की थाली में अपने हिस्से से एक कौर निकालकर दूसरे की थाली में डाल दिया जाए—बिना शोर, बिना हिसाब। ‘कम बोल, ज़्यादा कर’—यह सादा-सा सूत्र हर दिन के लिए पर्याप्त है। सुबह उठते ही यह संकल्प करें कि आज किसी एक व्यक्ति की मुश्किल सरल करेंगे—शब्द से, कर्म से, समय से या संसाधन से; शाम को सोने से पहले सोचें कि क्या सचमुच किसी का बोझ हल्का हुआ। यही ‘जीते-जी त्याग’ है, यही ‘मर कर भी जीना’ है; क्योंकि परोपकार में दिया गया समय शाश्वत बनकर लौटता है। मन में यह पंक्ति बजती रहे—जीवन की असली कमाई वही है जो दूसरों के काम आए। तब सच में कहा जा सकेगा—इंसान वही, जो इंसानियत के लिए जिए; और अगर घड़ी माँगे तो मुस्कुराकर अपने हिस्से का दीया बुझाकर किसी और की रात को रोशन कर दे।

अस्वीकरण (Disclaimer):
यह निबंध केवल शैक्षणिक संदर्भ और प्रेरणा हेतु प्रस्तुत किया गया है। पाठकों/विद्यार्थियों को सलाह दी जाती है कि वे इसे शब्दशः परीक्षा या प्रतियोगिताओं में न लिखें। इसकी भाषा, संरचना और विषयवस्तु को समझकर अपने शब्दों में निबंध तैयार करें। परीक्षा अथवा गृहकार्य करते समय शिक्षक की सलाह और दिशा-निर्देशों का पालन अवश्य करें।

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