भारतवर्ष अपनी सांस्कृतिक और सामाजिक परंपराओं के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध रहा है। वैदिक युग से लेकर आधुनिक काल तक हमारा समाज समय-समय पर अनेक बदलावों से गुजरा है। इन परिवर्तनों के साथ-साथ समाज में कई समस्याएँ भी जन्म लेती गईं। सामाजिक असमानता, जातिवाद, छुआछूत, दहेज प्रथा, बाल विवाह, नारी शोषण, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी समस्याएँ आज भी हमारे समाज के विकास में बाधक बनकर खड़ी हैं। समय की माँग है कि हम इन चुनौतियों का सामना एकजुट होकर करें, तभी एक समतामूलक समाज की कल्पना साकार हो सकती है।
जातिवाद भारतीय समाज की एक पुरानी बीमारी है जिसने सामाजिक संरचना को अंदर से खोखला कर दिया है। ‘जाति पूछे न साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान’ जैसे कहावतें सिर्फ पुस्तकों तक सीमित रह गई हैं। आज भी कई स्थानों पर मनुष्य की पहचान उसकी जाति से होती है, न कि उसके गुणों और कार्यों से। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 21वीं सदी के भारत में भी जाति के नाम पर भेदभाव जारी है। निचली जातियों को उपेक्षा, शोषण और तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। यह भावना सामाजिक एकता के लिए जहर समान है।
छुआछूत एक ऐसी सामाजिक कुरीति है जो आज भी कुछ ग्रामीण क्षेत्रों में जीवित है। यह विचार कि एक इंसान को छूना पाप है, मानवीय मूल्यों का अपमान है। इसने समाज को दो हिस्सों में बाँट दिया — स्पर्श के योग्य और स्पर्श के अयोग्य। यह स्थिति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसे आदर्शों पर करारा प्रहार करती है। भारत के संविधान ने ऐसे भेदभाव को अपराध माना है, लेकिन जब तक समाज का दृष्टिकोण नहीं बदलेगा, तब तक यह समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकती।
एक अन्य गंभीर समस्या है दहेज प्रथा। विवाह जो कि दो आत्माओं के पवित्र मिलन का अवसर होता है, उसे इस प्रथा ने व्यापार बना दिया है। विवाह से पहले ही लड़की के माता-पिता को लड़केवालों की माँगों की लंबी सूची सौंप दी जाती है। परिणामस्वरूप, निर्धन परिवारों के लिए कन्या विवाह एक बोझ बन जाता है। कई बार यह बोझ इतना बढ़ जाता है कि कन्या या उसके माता-पिता आत्महत्या तक कर बैठते हैं। यह स्थिति मानवता पर कलंक है।
बाल विवाह भी एक ऐसी कुप्रथा है जिसने न जाने कितनी मासूम जिंदगियों को अंधकार में धकेल दिया है। किशोरावस्था में विवाह न केवल शारीरिक बल्कि मानसिक और सामाजिक रूप से भी बच्चों के विकास में बाधा बनता है। विशेष रूप से बालिकाएँ शिक्षा, स्वास्थ्य और अधिकारों से वंचित रह जाती हैं। इससे उनके जीवन की दिशा ही बदल जाती है, अक्सर विवशता और अन्याय की ओर।
नारी शोषण समाज की एक और विकराल समस्या है। कभी दहेज के लिए जलाया जाना, कभी कार्यस्थल पर उत्पीड़न, तो कभी घर की चारदीवारी में अपमानित होना— इन सबने महिलाओं के आत्मविश्वास को चोट पहुँचाई है। हालांकि सरकार और समाज में जागरूकता आई है, लेकिन यह बदलाव अभी समग्र नहीं है। नारी को सम्मान और स्वतंत्रता देना न केवल उसका अधिकार है, बल्कि एक प्रगतिशील समाज की पहचान भी है।
बेरोजगारी और अशिक्षा दो ऐसी जड़ें हैं, जिनसे अधिकतर सामाजिक समस्याएँ फलती-फूलती हैं। जब किसी युवा के पास रोजगार नहीं होता, तो वह असंतोष, अवसाद या अपराध की ओर मुड़ सकता है। इसी प्रकार, अशिक्षा समाज को अंधकार में रखने का कार्य करती है। शिक्षा वह दीपक है जो अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करता है। यदि शिक्षा सबको समान रूप से मिले, तो सामाजिक असमानता अपने आप कम हो सकती है।
आज के समय में डिजिटल युग ने जहाँ एक ओर ज्ञान और सूचना के नए द्वार खोले हैं, वहीं दूसरी ओर सोशल मीडिया पर फेक न्यूज़, धार्मिक उन्माद और जातिगत विद्वेष को बढ़ावा देने वाले तत्व भी सक्रिय हैं। यह हमारे लिए एक नई सामाजिक चुनौती है। हमें डिजिटल साक्षरता के साथ-साथ नैतिकता की भी शिक्षा देनी होगी, ताकि युवा पीढ़ी इन जालों में न फँसे। नई तकनीक का उपयोग यदि विवेकपूर्वक हो, तो यह सामाजिक बदलाव का सशक्त माध्यम बन सकता है।
संविधान ने छुआछूत, बेगार, बाल-श्रम आदि को अपराध घोषित किया है और आरक्षण जैसी व्यवस्था के माध्यम से दलितों एवं पिछड़े वर्गों को उन्नति के अवसर प्रदान किए हैं। लेकिन समाज में तब तक सुधार नहीं हो सकता जब तक आम नागरिकों में सामाजिक चेतना और संवेदनशीलता न हो। सामाजिक सुधार केवल कानून से नहीं, बल्कि विचारों और व्यवहार से आता है।
अतः यह अत्यंत आवश्यक है कि हम जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र के आधार पर किसी को छोटा-बड़ा न समझें। सबको समान अधिकार और सम्मान मिले, यही लोकतंत्र का मूल मंत्र है। “एकता में शक्ति” जैसी उक्ति को यदि हम अपने जीवन में उतार लें, तो निश्चित ही हमारी सामाजिक चुनौतियाँ अवसर में बदल जाएँगी और भारत एक सशक्त, समतामूलक राष्ट्र बनने की दिशा में अग्रसर होगा।
अस्वीकरण (Disclaimer):
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