आज का भारत अनेक सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिवर्तनों से गुजर रहा है। इन परिवर्तनों के बीच सबसे गंभीर और जनजीवन को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाली समस्या है—मूल्य-वृद्धि। यह समस्या केवल आर्थिक संतुलन को ही नहीं, बल्कि आम आदमी की मानसिक शांति को भी झकझोर रही है। जिस रूपये को कभी सम्मानपूर्वक जेब में रखा जाता था, वही आज अपनी शक्ति खो बैठा है। जैसे-जैसे दैनिक उपभोग की वस्तुओं के दाम आसमान छूते जा रहे हैं, आम आदमी की उम्मीदें ज़मीन में धँसती जा रही हैं।
आज हर ओर यही चर्चा है—”महँगाई बेतहाशा बढ़ गई है।” खाने-पीने की वस्तुएँ, ईंधन, दवाइयाँ, शिक्षा, परिवहन आदि हर क्षेत्र में लागत इतनी बढ़ गई है कि साधारण वर्ग के लिए जीवन यापन करना ‘आसमान से तारे तोड़ने’ जैसा प्रतीत हो रहा है। महँगाई ने उन लोगों की रीढ़ तोड़ दी है, जो सीमित वेतन पर आश्रित हैं। कुछ दशक पहले जो वस्तुएँ आम आदमी की पहुँच में थीं, आज वे केवल संपन्न वर्ग की थाली की शोभा बनकर रह गई हैं।
इस मूल्य-वृद्धि के पीछे अनेक कारण हैं। स्वतंत्रता के बाद हमारी जनसंख्या तेजी से बढ़ी, किंतु उसके अनुपात में उत्पादन नहीं हो सका। माँग बढ़ती गई, आपूर्ति सीमित रही, फलस्वरूप मूल्य बढ़ना स्वाभाविक था। इसके अतिरिक्त प्राकृतिक आपदाएँ, वितरण व्यवस्था की खामियाँ, जमाखोरी, कालाबाजारी और सरकारी योजनाओं की अपूर्णता जैसे अनेक कारणों ने मिलकर इस समस्या को और विकराल बना दिया।
वर्तमान दौर में यह कहना गलत नहीं होगा कि महँगाई ‘लक्ष्मण रेखा’ पार कर चुकी है। जीवन की हर जरूरत पर ‘महँगाई का टैग’ चिपका हुआ है। किसी जमाने में जो 100 रुपये में पूरा महीना कट जाता था, आज वही रकम एक दिन का खर्च नहीं झेल पाती। यह रूपये की क्रयशक्ति में गिरावट और आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि का सीधा परिणाम है।
स्वतंत्रता के बाद जनसामान्य की जीवनशैली में भी परिवर्तन आया है। पहले लोग सादगी से जीवन व्यतीत करते थे, लेकिन अब विलासिता और दिखावे की संस्कृति बढ़ रही है। कई वस्तुएँ जो कभी विलास की श्रेणी में आती थीं, आज उन्हें आवश्यकताओं की सूची में शामिल कर लिया गया है। जैसे—चाय, कॉफी, बिस्किट, फ्रिज, एसी, स्मार्टफोन आदि। इन सबकी बढ़ती माँग और सीमित आपूर्ति ने बाजार में इनकी कीमतों को ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया है।
एक अन्य बड़ी समस्या है—बढ़ती उपभोक्ता मानसिकता। विज्ञापनों और डिजिटल मीडिया के प्रभाव ने आम आदमी को अधिक उपभोग की ओर प्रेरित किया है। जरूरत से ज्यादा उपभोग की यह प्रवृत्ति देश के संसाधनों पर दबाव बनाती है और मूल्य-वृद्धि को जन्म देती है। आज का उपभोक्ता “जितनी चादर हो, उससे बाहर पैर पसारने” की प्रवृत्ति अपना रहा है। यही प्रवृत्ति अंततः अर्थव्यवस्था को असंतुलित कर देती है।
वर्तमान समय में इंटरनेट और ई-कॉमर्स के युग ने एक ओर जहाँ सुविधाएँ प्रदान की हैं, वहीं दूसरी ओर इसने बाजार में मूल्य अस्थिरता को भी जन्म दिया है। ऑनलाइन छूट और तेजी से बदलती कीमतों के कारण उपभोक्ता भ्रमित हो जाता है और असली मूल्य का आकलन कठिन हो जाता है। परिणामस्वरूप दुकानदार भी इसी अनिश्चितता का लाभ उठाकर कीमतें मनमाने ढंग से तय करने लगते हैं।
महँगाई के इस दुष्चक्र से गरीब और मध्यमवर्गीय परिवार सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। वे अपने सीमित संसाधनों में बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, राशन और परिवहन जैसी आवश्यकताओं को पूरा करने में असमर्थ हो जाते हैं। इसके कारण उनमें कुंठा और असंतोष जन्म लेता है, जो सामाजिक असंतुलन को बढ़ावा देता है। “जिस थाली में खाया, उसी में छेद” करने जैसी स्थितियाँ बनने लगती हैं।
जहाँ तक सरकारी प्रयासों की बात है, तो योजनाएँ तो बनती हैं, बजट भी पास होते हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उनका प्रभाव उतना व्यापक नहीं दिखता। मूल्य नियंत्रण अधिनियम, आवश्यक वस्तु अधिनियम, न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी योजनाएँ जब तक सख्ती से लागू नहीं होंगी, तब तक इनका लाभ केवल कागज़ों तक ही सीमित रहेगा।
सरकार के साथ-साथ नागरिकों की भी कुछ ज़िम्मेदारियाँ बनती हैं। यदि हम आवश्यक वस्तुओं का विवेकपूर्ण उपभोग करें, स्थानीय उत्पादों को बढ़ावा दें, और फिजूलखर्ची से बचें, तो स्थिति में सुधार हो सकता है। “एक और एक ग्यारह” की तरह, जब जन-सहयोग और सरकारी नीति मिलकर काम करेंगे, तभी मूल्य-वृद्धि की यह जटिल समस्या काबू में आ सकेगी।
आज के समय में डिजिटल लेन-देन, मोबाइल बैंकिंग, UPI और GST जैसे आधुनिक उपकरणों ने जहाँ पारदर्शिता को बढ़ावा दिया है, वहीं मूल्य निर्धारण में संतुलन स्थापित करने का प्रयास भी किया है। इन तकनीकी प्रयासों से अर्थव्यवस्था को गति मिली है, लेकिन इनका लाभ तभी होगा जब इनका उपयोग व्यापक स्तर पर हो और इनकी निगरानी सतत बनी रहे।
देश की प्रगति के लिए आवश्यक है कि सभी वर्ग के लोग मिलकर इस समस्या से निपटें। मीडिया को चाहिए कि जनजागरूकता फैलाए, स्कूलों में बच्चों को बचत और सही उपभोग की शिक्षा दी जाए, और सामाजिक संस्थाएँ स्थानीय स्तर पर मूल्य निगरानी समितियाँ बनाएँ। जन-सहभागिता ही किसी भी नीति की सफलता की असली कसौटी होती है।
आधुनिक युग में महँगाई से लड़ने के लिए डिजिटल भारत अभियान, आत्मनिर्भर भारत और ‘मेक इन इंडिया’ जैसे प्रयास सहायक सिद्ध हो सकते हैं। यदि सरकार तकनीक, पारदर्शिता और लोगों की सहभागिता के साथ योजनाओं को क्रियान्वित करे, तो मूल्य-वृद्धि पर नियंत्रण संभव है। यह कार्य कठिन अवश्य है, पर असंभव नहीं।
अंततः यह समझना आवश्यक है कि मूल्य-वृद्धि कोई एक दिन में उत्पन्न हुई समस्या नहीं है, न ही इसका समाधान चुटकियों में संभव है। यह एक सतत संघर्ष है जिसमें सरकार, जनता, नीति-निर्माता और व्यापारी—सभी को साथ आना होगा। तभी हम एक संतुलित और स्थिर अर्थव्यवस्था की दिशा में आगे बढ़ पाएँगे। “जहाँ चाह वहाँ राह”—इस विश्वास के साथ कदम बढ़ाना ही आज की आवश्यकता है।
अस्वीकरण (Disclaimer):
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