अंधविश्वास [Hindi Essay – (Superstitions – a great curse)]

मानव समाज में विश्वास की शक्ति अद्भुत होती है, पर जब यह विश्वास विवेक से कटकर जड़ता में बदल जाए, तब वह अंधविश्वास का रूप ले लेता है। अंधविश्वास का अर्थ है बिना तर्क के किसी बात पर विश्वास करना और उसी के अनुसार जीवन को संचालित करना। चाहे वह काली बिल्ली के रास्ता काटने से यात्रा रोकना हो या ग्रह-नक्षत्रों के आधार पर निर्णय लेना — यह सब उसी अंधकारमय सोच की उपज है जिसे हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी ढोते आ रहे हैं। “जहाँ ज्ञान का दीपक बुझता है, वहाँ अंधविश्वास की परछाई लंबी होती जाती है।”

अंधविश्वास की जड़ें इतनी गहरी हैं कि वे जातिगत, धार्मिक और सामाजिक परंपराओं में उलझी हुई हैं। कुछ अंधविश्वास खास जातियों से जुड़े होते हैं, जैसे किसी जाति विशेष की स्त्री द्वारा नजर लग जाना। कुछ धार्मिक रूप में हमारे संस्कारों में समा चुके हैं — जैसे राहु-काल में कोई शुभ कार्य न करना या ग्रहण के समय भोजन न करना। वहीं कुछ सामाजिक विश्वास ऐसे हैं जो सभी वर्गों को प्रभावित करते हैं, जैसे विवाह से पहले कुंडली मिलाना या किसी अपशकुन की घटना के बाद पूरे कार्यक्रम को स्थगित कर देना। ये विश्वास हमें चेतना की उस अवस्था में बाँध देते हैं जहाँ हम सोचते नहीं, केवल निभाते हैं।

वर्तमान युग विज्ञान और तर्क का है। अब प्रत्येक बात को कारण और परिणाम की दृष्टि से देखा जाता है। फिर भी, कुछ घटनाएँ ऐसी होती हैं जो विज्ञान से परे प्रतीत होती हैं — जैसे ‘फूंक’ से पीलिया का इलाज या किसी झाड़ी की राख से त्वचा रोग ठीक हो जाना। यह अवश्य ही तंत्र नहीं, अपितु ‘भावना की शक्ति’ हो सकती है। जैसा कि एक प्राचीन श्लोक कहता है — “यस्य भावना, तस्य सिद्धि।” यानी जिसकी भावना प्रबल हो, उसे सफलता अवश्य मिलती है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हम विवेक को त्याग दें। विज्ञान जहाँ नहीं पहुंचता, वहाँ भावनाओं को महत्व मिल सकता है; परंतु जहां तक तर्क जा सके, वहां अंधता नहीं होनी चाहिए।

आश्चर्य की बात यह है कि अंधविश्वास केवल ग्रामीण या अशिक्षित वर्ग तक सीमित नहीं है। उच्च शिक्षित, महानगरों में रहने वाले लोग भी इन विश्वासों से बंधे हैं। कोई नया वाहन लेने से पहले ग्रह-नक्षत्र पूछते हैं, ऑफिस जाने से पहले छींक हो जाए तो कुछ देर रुक जाते हैं, और तो और, परीक्षा देने से पहले खास कलम या रुमाल साथ ले जाना ‘शुभ’ मानते हैं। यह दर्शाता है कि अंधविश्वास केवल जानकारी की कमी से नहीं, बल्कि मानसिक असुरक्षा से उपजता है। जब व्यक्ति भविष्य को लेकर डरता है, तब वह किसी अदृश्य शक्ति में शरण ढूंढ़ता है।

आज तकनीक और इंटरनेट के दौर में जहाँ हम चंद्रयान-3 की सफलता पर गर्व करते हैं, वहीं व्हाट्सएप पर प्रसारित “सोने से पहले यह संदेश 7 लोगों को भेजो, वरना दुर्भाग्य आएगा” जैसे संदेश वायरल होते हैं। डिजिटल प्लेटफॉर्म ने एक नया अंधविश्वास जन्म दिया है — फ़ॉरवर्डेड भ्रम। कई बार फर्जी स्वास्थ्य टिप्स, ग्रहण के उपाय, या राशिफल जैसी चीज़ें बिना जांचे लोग साझा करते हैं। यह नया डिजिटल अंधविश्वास है, जो तेजी से युवा पीढ़ी को भी अपनी चपेट में ले रहा है। ऐसे में वैज्ञानिक सोच और मीडिया साक्षरता की अत्यंत आवश्यकता है।

जब समाज अंधविश्वास में डूब जाता है, तो वह प्रगति के मार्ग से भटक जाता है। निर्णय भावना नहीं, बल्कि भय पर आधारित होते हैं। किसान फसल खराब होने का दोष ग्रहों पर देता है, विद्यार्थी परीक्षा में असफल होने पर ‘अपशगुन’ को दोषी ठहराते हैं, और व्यवसायी मंदी को ‘किसी की नजर’ बता देता है। इससे व्यक्ति स्वयं की जिम्मेदारी से बचता है और कर्मठता की बजाय भाग्य को दोष देता है। इस मानसिकता से समाज में आत्मनिर्भरता नहीं, बल्कि पराश्रय की भावना बढ़ती है। मुहावरा है — “जो सोचे बिना करे, वह पछताए घड़ी-घड़ी।”

इस समस्या का हल कोई जादुई मंत्र नहीं है, बल्कि एक सतत प्रयास है – शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आत्मचिंतन के माध्यम से। बच्चों को प्रारंभ से ही ‘क्यों’, ‘कैसे’ और ‘कब’ पूछने की आदत डालनी चाहिए। विद्यालयों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित कहानियाँ, प्रयोग और चर्चाएँ अंधविश्वास से जूझने का मार्ग खोल सकती हैं। मीडिया को भी चाहिए कि वह तंत्र-मंत्र और भूत-प्रेत जैसे कार्यक्रमों की बजाय विज्ञान व शोध आधारित सामग्री प्रस्तुत करे। जब तक समाज में आलोचनात्मक सोच नहीं विकसित होगी, तब तक अंधविश्वास का अंधकार बना रहेगा। जैसा कि कबीरदास ने कहा था —
“बूँद-बूँद से घड़ा भरै, ज्यों-ज्यों करै विचार।
अंधकार मिटता चलै, ज्यों-ज्यों जागे संसार।”

अंधविश्वास वह पर्दा है जो हमें सत्य से दूर करता है, हमारी सोच को सीमित करता है और हमें पराधीन बनाता है। यह समय है इस पर्दे को हटाने का, सत्य की ओर बढ़ने का। विज्ञान, शिक्षा और विवेक के दीप से ही हम इस अंधकार को चीर सकते हैं। हमें स्वयं से यह प्रश्न पूछना होगा — “क्या मैं सोच रहा हूँ या बस मान रहा हूँ?” यदि हम यह अंतर समझ जाएँ, तो अंधविश्वास का अंत निश्चित है।

अस्वीकरण (Disclaimer):
यह निबंध केवल शैक्षणिक संदर्भ और प्रेरणा हेतु प्रस्तुत किया गया है। पाठकों/विद्यार्थियों को सलाह दी जाती है कि वे इसे शब्दशः परीक्षा या प्रतियोगिताओं में न लिखें। इसकी भाषा, संरचना और विषयवस्तु को समझकर अपने शब्दों में निबंध तैयार करें। परीक्षा अथवा गृहकार्य करते समय शिक्षक की सलाह और दिशा-निर्देशों का पालन अवश्य करें।

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