मानव जीवन में अनेक गुण ऐसे हैं जो उसे अन्य प्राणियों से विशिष्ट बनाते हैं, परंतु यदि किसी एक गुण को सर्वोच्च स्थान देना हो तो निस्संदेह वह ‘परोपकार’ है। परोपकार का अर्थ है – दूसरों के दुख को दूर करने और उनके सुख को बढ़ाने का निःस्वार्थ प्रयास। यह केवल भौतिक सहायता देने तक सीमित नहीं है, बल्कि इसमें करुणा, प्रेम, सहानुभूति और त्याग की गहराई भी सम्मिलित है। यदि हम इतिहास, साहित्य और धार्मिक ग्रंथों पर दृष्टि डालें, तो पाएँगे कि सभी महान व्यक्तियों ने परोपकार को ही जीवन का आदर्श माना है। महर्षि व्यास ने कहा है – “परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़नम्” अर्थात परोपकार से पुण्य की प्राप्ति होती है और दूसरों को पीड़ा पहुँचाने से पाप लगता है। यह वचन केवल नैतिक शिक्षा नहीं है, बल्कि जीवन का अनिवार्य सिद्धांत है। परोपकार का महत्व इस बात से भी स्पष्ट होता है कि प्रकृति स्वयं निस्वार्थ भाव से परोपकार करती है – सूर्य बिना किसी स्वार्थ के सभी को प्रकाश और ऊष्मा देता है, नदियाँ बिना भेदभाव के मीठा जल बहाती हैं, वृक्ष बिना मूल्य लिए फल-फूल प्रदान करते हैं। यदि प्रकृति का हर अंश सेवा और दान में लीन है, तो मनुष्य, जिसे बुद्धि और विवेक का वरदान मिला है, कैसे इस कर्तव्य से विमुख रह सकता है? सच तो यह है कि परोपकार ही मनुष्य को ‘मनुष्य’ बनाता है, वरना स्वार्थी जीवन जीने वाले और अन्य जीवों में कोई विशेष अंतर नहीं रह जाता। अपने लिए तो पशु-पक्षी भी जी लेते हैं, किंतु जो दूसरों के लिए जीता है, वही सच्चा मानव कहलाता है। लोकोक्ति है – “परहित सरिस धर्म नहीं भाई”, जो इस सत्य को पूर्ण रूप से सार्थक करती है। इसलिए, परोपकार केवल एक सामाजिक दायित्व नहीं, बल्कि जीवन की सबसे बड़ी उपासना है।
परोपकार का संबंध केवल संपन्न या समर्थ व्यक्तियों से नहीं है। यह भावना किसी के पास धन होने या न होने पर निर्भर नहीं करती, बल्कि उसके हृदय की विशालता पर आधारित होती है। एक निर्धन व्यक्ति भी यदि भूखे को अपने हिस्से की रोटी दे दे, तो वह किसी बड़े से बड़े दानवीर से कम नहीं। यह कार्य महज दान देने का नहीं, बल्कि अपने सुख-सुविधा का त्याग कर किसी अन्य के जीवन में उजाला फैलाने का है। हमारे समाज में अनगिनत ऐसे उदाहरण मिलते हैं जब साधारण लोग असाधारण सेवा-भावना से समाज में परिवर्तन लाते हैं। महात्मा गांधी ने कहा था – “जो व्यक्ति अपने हिस्से का परिश्रम किए बिना भोजन करता है, वह चोर है।” यह वचन केवल श्रम की महत्ता ही नहीं, बल्कि इस बात को भी दर्शाता है कि हमें अपनी क्षमता और संसाधनों का उपयोग दूसरों के हित में करना चाहिए। आज के समय में भी, जब भौतिकवाद अपने चरम पर है, हमें यह याद रखना होगा कि हमारे जीवन का वास्तविक मूल्य इस बात से तय होगा कि हमने कितने चेहरों पर मुस्कान बिखेरी। छोटी-सी मदद, जैसे किसी को रास्ता दिखाना, वृद्ध को सड़क पार कराना, किसी गरीब बच्चे की पढ़ाई का खर्च उठाना – ये सभी कार्य भी उतने ही मूल्यवान हैं जितने बड़े पैमाने पर किए गए परोपकारी प्रयास।
परोपकार का बीज करुणा और प्रेम की मिट्टी में पनपता है, जिसे मानवता का जल और सहिष्णुता की धूप मिलती है। जब यह वृक्ष रूप में विकसित होता है, तो इसके फल और छाया से संपूर्ण समाज लाभान्वित होता है। हमारे धार्मिक ग्रंथों और महापुरुषों के जीवन में परोपकार की असंख्य मिसालें हैं। राजा हरिश्चंद्र ने सत्य और धर्म के पालन हेतु अपना सब कुछ त्याग दिया, तो दानवीर कर्ण ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी अपना कवच-कुंडल दान कर दिया। इन उदाहरणों का सार यही है कि परोपकार केवल संपत्ति देने का नाम नहीं, बल्कि अपनी सुविधा, समय, ऊर्जा और कभी-कभी जीवन तक को समाज के कल्याण के लिए अर्पित करने की भावना है। आज आवश्यकता है कि हम इन प्रेरणादायक आदर्शों को केवल कहानी की तरह न सुनें, बल्कि उन्हें अपने जीवन में उतारें। क्योंकि यदि परोपकार केवल शब्दों में सीमित रह जाए, तो उसका कोई महत्व नहीं, लेकिन जब यह आचरण में प्रकट होता है, तो समाज के स्वरूप को ही बदल देता है।
आधुनिक युग में परोपकार का स्वरूप बदल चुका है। पहले यह मुख्यतः धार्मिक और व्यक्तिगत कर्तव्यों के रूप में देखा जाता था, लेकिन अब यह संगठित और योजनाबद्ध प्रयास का रूप ले चुका है। बड़ी-बड़ी संस्थाएँ, गैर-सरकारी संगठन (NGO) और कॉर्पोरेट जगत के सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR) कार्यक्रम समाज के विकास के लिए कार्य कर रहे हैं। अक्षय पात्रा फाउंडेशन जैसे संगठन लाखों बच्चों को प्रतिदिन पौष्टिक भोजन उपलब्ध करा रहे हैं। गूंज संस्था पुराने कपड़ों और अन्य वस्तुओं को जरूरतमंदों तक पहुँचाने का कार्य कर रही है। वाधवानी इम्पैक्ट ट्रस्ट और वाधवानी एआई स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में डिजिटल समाधानों के माध्यम से परिवर्तन ला रहे हैं। यह सब दर्शाता है कि परोपकार अब केवल व्यक्तिगत सद्गुण नहीं रहा, बल्कि सामाजिक विकास की एक आवश्यक प्रक्रिया बन चुका है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि अब परोपकार का दायरा केवल जरूरतमंदों तक सीमित नहीं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण, महिला सशक्तिकरण और ग्रामीण विकास तक फैल चुका है। यह परोपकार का विस्तृत और आधुनिक स्वरूप है, जो आज के समय में अत्यंत आवश्यक है।
परोपकार की भावना का सबसे सुंदर पहलू यह है कि इसमें देने वाला और पाने वाला दोनों ही समृद्ध होते हैं। देने वाला आत्मसंतोष और आत्मसम्मान से भर जाता है, जबकि पाने वाला राहत और कृतज्ञता का अनुभव करता है। यह संबंध केवल भौतिक वस्तुओं का लेन-देन नहीं है, बल्कि आत्माओं का आदान-प्रदान है। किसी ने सही ही कहा है – “परोपकार वह बूँद है जो मानवता के रेगिस्तान को जीवनदायी वर्षा में बदल देती है।” यह भावना व्यक्ति को भीतर से बदल देती है, उसके विचारों को उच्च करती है और जीवन में एक उद्देश्य प्रदान करती है। जब कोई व्यक्ति सेवा-भाव से दूसरों के लिए जीना शुरू करता है, तो वह जीवन के वास्तविक सुख का अनुभव करता है, जो किसी भौतिक संपत्ति से नहीं मिल सकता। यही कारण है कि परोपकार करने वाले व्यक्तियों के चेहरे पर एक अद्भुत शांति और संतोष दिखाई देता है।
आज के प्रतिस्पर्धी और व्यस्त जीवन में भी परोपकार के अवसर अनगिनत हैं। डिजिटल युग ने तो सेवा और सहायता के नए रास्ते खोल दिए हैं। अब ऑनलाइन दान, क्राउडफंडिंग, मुफ्त शिक्षा सामग्री, रक्तदान पंजीकरण, आपदा राहत कार्य – ये सभी घर बैठे किए जा सकते हैं। कोविड-19 महामारी के समय हमने देखा कि कैसे लाखों लोगों ने बिना पहचान या प्रतिफल की चाह के, जरूरतमंदों तक भोजन, दवाइयाँ और ऑक्सीजन पहुँचाई। इसने साबित कर दिया कि चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों, मानवता का दीपक बुझ नहीं सकता। इस युग में परोपकार केवल भौतिक संसाधनों का दान नहीं, बल्कि डिजिटल कौशल, समय और ज्ञान साझा करने का भी नाम है। कोई व्यक्ति अपने अनुभव और शिक्षा के माध्यम से सैकड़ों लोगों का जीवन बदल सकता है।
हमारे देश में परोपकार केवल एक सामाजिक कर्तव्य नहीं, बल्कि सांस्कृतिक विरासत भी है। “अतिथि देवो भव”, “वसुधैव कुटुंबकम्” जैसी मान्यताएँ इस बात का प्रमाण हैं कि भारत की संस्कृति में दूसरों की भलाई करना सदा सर्वोच्च आदर्श रहा है। यहाँ परोपकार के अनेक रूप देखने को मिलते हैं – कोई धर्मशालाएँ बनवाता है, कोई कुएँ खुदवाता है, कोई विद्यालय और चिकित्सालय स्थापित करता है। गाँवों में आज भी लोग श्रमदान करके सड़क, पुल और सामुदायिक भवन बनाते हैं। ये सभी कार्य बिना किसी निजी लाभ के, केवल समाज के हित के लिए किए जाते हैं। यह परोपकार की वह शक्ति है जो न केवल भौतिक, बल्कि नैतिक और सांस्कृतिक प्रगति भी सुनिश्चित करती है।
परोपकार केवल जरूरतमंदों की सहायता भर नहीं है, यह सामाजिक एकता और सद्भाव का आधार है। जब हम दूसरों की मदद करते हैं, तो उनके साथ हमारे रिश्ते मजबूत होते हैं और समाज में भाईचारे की भावना बढ़ती है। स्वार्थ, ईर्ष्या और द्वेष की दीवारें टूटने लगती हैं। आज जब दुनिया में अलगाव, तनाव और संघर्ष बढ़ रहे हैं, परोपकार ही वह सेतु है जो लोगों के दिलों को जोड़ सकता है। यह हमें सिखाता है कि जीवन का असली सुख अपने लिए संग्रह करने में नहीं, बल्कि दूसरों को बांटने में है। जब समाज के अधिकांश लोग इस सिद्धांत को अपनाएँगे, तो न केवल व्यक्तिगत जीवन, बल्कि पूरा राष्ट्र सुखी और समृद्ध हो जाएगा।
अंततः, परोपकार केवल एक सद्गुण नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला है। यह हमें सिखाता है कि सच्चा धन वही है जो दूसरों के काम आए। जब हम किसी के चेहरे पर अपनी वजह से मुस्कान देखते हैं, तो यह अनुभव अमूल्य होता है। इसलिए, हमें अपने जीवन में परोपकार को स्थान देना चाहिए – चाहे वह छोटे-छोटे कार्यों के रूप में ही क्यों न हो। जैसे दीपक अपनी लौ से अंधकार मिटाता है, वैसे ही हमारा छोटा-सा परोपकार किसी के जीवन में आशा की किरण जगा सकता है। यही मानवता का सर्वोच्च आभूषण है, जिसे पहनकर हम स्वयं भी गौरवान्वित होते हैं और समाज को भी गौरव देते हैं।
अस्वीकरण (Disclaimer):
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