मेरे प्रिय शिक्षक (My Favourite Teacher: Impact on Student Life)

बचपन में जब अक्षरों की दुनिया से पहली बार दोस्ती हुई, तब शिक्षक का चेहरा ही ज्ञान का पहला उजाला लगा; जैसे दीपक की लौ से लौ जले तो घर-आँगन रोशन हो उठता है, वैसे ही गुरुजन की वाणी से मन की खिड़कियाँ खुलती चली जाती हैं। कहा भी गया है—जैसा गुरु, वैसा शिष्य; गुरु बिना ज्ञान नहीं, और ज्ञान बिना जीवन नहीं। मेरे जीवन में भी एक ऐसे गुरु आए, जिन्होंने पढ़ाई को बोझ नहीं, आनंद बना दिया; डाँट की जगह दिशा दी, डर की जगह विश्वास। उनकी कक्षा में प्रवेश करते ही वातावरण बदल जाता—शब्दों में मधुरता, उदाहरणों में जीवन की सोंधी गंध, और समझाने के ढंग में इतना अपनापन कि कठिन से कठिन पाठ भी सहज हो जाए। वे कहा करते, “जहाँ चाह, वहाँ राह; पर राह को राह बनाने वाली आदतें हैं—समय-साधना, स्वच्छ-लेखन, और मन लगाकर सुनना।” उनकी यह बात केवल कहावत नहीं, कक्षा की धड़कन थी; घंटी बजते ही सबकी नज़रें बोर्ड पर टिक जातीं और मन कहीं भटकने की फुर्सत न पाता। धीरे-धीरे महसूस हुआ कि अच्छा शिक्षक केवल पाठ नहीं पढ़ाता, वह पढ़ने का ढंग सिखाता है; वह केवल उत्तर नहीं देता, प्रश्न पैदा करना सिखा देता है। यहीं से सीख का स्वाद लग गया—पढ़ाई अब परीक्षा के अंक तक सीमित न रही, बल्कि रोज़ के अभ्यास का आनंद बन गई; और यही आनंद आगे बढ़कर आत्मविश्वास में ढलता चला गया।

मेरी स्कूली यात्रा कई कस्बों और शहरों से गुज़री; पिता के स्थानांतरण के साथ स्कूल बदलते रहे, किताबें बदलती रहीं, पर सीखने की भूख कायम रही। हर नई कक्षा में नए चेहरे, नई बोली और नए नियम मिलते; शुरुआत में घबराहट होती, पर माँ कहतीं—“नया पानी, नई मछली; डरोगे तो तैरना कैसे सीखोगे?” उन्हीं दिनों एक बड़े नगर के प्रतिष्ठित विद्यालय में स्थायी प्रवेश मिला। अनुशासन सख्त, नियम साफ, और पढ़ाई का ढंग व्यवस्थित था; सुबह की प्रार्थना से लेकर खेल-मैदान तक सब कुछ समय की सुइयों पर चलता। प्रधानाचार्य गरिमामय व्यक्तित्व के धनी थे—कठोर दिखते, पर भीतर से कोमल। वे बीमार विद्यार्थियों की छुट्टी स्वीकृत करते हुए भी यह पूछना नहीं भूलते कि दवा समय पर ली या नहीं; यह संयोजन—नियम और ममता—स्कूल की पहचान बन गया। नई जगह, नया माहौल और उम्मीदों का दबाव—इन सबके बीच एक ऐसी कक्षा मिली जहाँ पहली बार लगा कि शिक्षक कमरे की चारदीवारी नहीं, विचारों की खिड़की है। वहीं मैं उनसे मिला—मेरे आदर्श गुरु—जिन्होंने पढ़ाई को पन्नों से निकाल कर जीवन के प्रसंगों में टाँक दिया; लिखना सिखाते-सिखाते सोचने का सलीका दे दिया; और सबसे बढ़कर, यह विश्वास बिठा दिया कि मेहनत का रास्ता लंबा हो सकता है, पर मंज़िल रास्ता ही बना देती है।

मेरे प्रिय शिक्षक का व्यक्तित्व साधन-संपन्न नहीं, साधना-संपन्न था—सादा खादी, सरल चाल, और शब्दों में ऐसी विनम्रता कि बात सीधी दिल में उतर जाए। वे कहते, “किताब रास्ता दिखाती है, पर चलना तुम्हें है; इसलिए कदम संभलकर और साहस से उठाओ।” पढ़ाने का उनका तरीका अनूठा था—कहानी के भीतर नियम, अनुभव के भीतर सिद्धांत, और हास्य के भीतर अनुशासन; मुहावरों की छौंक और लोक-कथाओं की मिठास से वे भाषा को जीता-जागता बना देते। कठिन अनुच्छेद को वे पंक्तियों की गाँठ खोलते हुए ऐसे समझाते कि संकोच में बैठे विद्यार्थी भी हाथ उठाने लगते। वे रटने के बदले रचना पर ज़ोर देते—सार-लेखन, अनुच्छेद-रचना, संवाद-लेखन, और वक्तृता; कहते, “शब्द गहने नहीं, औज़ार हैं; इनसे विचार गढ़ो।” कॉपी जाँचते समय लाल-नीली रेखा से अधिक हरी स्याही के प्रोत्साहन-वाक्य मिलते—“यह उपमा सुंदर है”, “उदाहरण प्रासंगिक”, “अगली बार आरंभ और प्रभावी करो”—ऐसे छोटे संदेश मन में बड़ी जड़ें जमाते। परीक्षा के दिनों में वे ‘मॉक-टेस्ट’ कराते और हमेशा जोड़ते—“गलतियाँ रस्सी नहीं, सीढ़ी हैं; डरना नहीं, चढ़ते जाना।” सच यह है कि उनके सान्निध्य में पढ़ाई एक संयुक्त अभ्यास बन गई—कक्षा, पुस्तकालय, खेल, संगीत, वाद-विवाद—सब एक दूसरे की ताकत बनने लगे।

अनुशासन के नाम पर वे कभी अपमान नहीं करते; दंड के स्थान पर संवाद रखते—“गलती कहाँ हुई, कैसे सुधरेगी, और अगली बार क्या सावधानी होगी?”—इन तीन सवालों से वे शरारत को सीख में बदल देते। वे भेदभाव से परे रहते; प्रथम आने वाले को विनम्र बनाते और पीछे रह गए छात्र को सहारा देते। धीमी गति से लिखने वाले बच्चों के लिए वे ‘लेखन-लैब’ चलाते, जहाँ पकड़ ढीली उँगलियों को धीरे-धीरे अभ्यास का सहारा मिलता। वे कहते, “सबकी घड़ी अलग है; किसी की मिनट-सुई आगे है, किसी की घंटे-सुई; मगर दोनों समय बताती हैं।” कक्षा का माहौल इस विश्वास से भर जाता कि हर छात्र किसी न किसी क्षेत्र में चमक सकता है। परामर्श-सत्रों में वे माता-पिता से भी संवाद करते—“अंक रिपोर्ट नहीं, रिपोर्ट का एक हिस्सा हैं; बच्चे का मनोबल सबसे बड़ा अंक है।” उनके इन वाक्यों ने घरों तक असर किया; अपेक्षाएँ तनी रस्सी की जगह सहारा देती डोरी बनने लगीं। यही कारण था कि कक्षा में दौड़ कम और दौड़ की तैयारी ज्यादा दिखती; प्रतिस्पर्धा में भी सहयोग झलकता—‘तुम आगे बढ़ो’ और ‘हम साथ हैं’ का मधुर संगम बन जाता।

कक्षा से बाहर उनका संसार भी उतना ही सजीव था। वे पुस्तकालय-घंटे को ‘खोज-घंटा’ कहते; लेखक-पाठक गोष्ठियाँ करवाते, दीवार-पत्रिका निकलवाते, और हर माह ‘भाषा-महोत्सव’ रचते—कहानी-कथा, कविता-पाठ, नुक्कड़-नाटक, वाद-विवाद, समाचार-पठन। वे समझाते, “पढ़ना साँस है, लिखना उसकी धड़कन।” मेरी पहली प्रकाशित लघुकथा उनके मार्गदर्शन में ही बनी; उन्होंने ड्राफ्ट पर लिखा—“पात्र जगते हैं, कथानक चलता है; अब अंत को चाप दो”—एक पंक्ति ने रचना का कद बढ़ा दिया। खेल-मैदान में भी वे उपस्थिति दर्ज कराते; जीत पर विनम्रता और हार पर हाथ थामना—दोनों वे सिखाते। स्कूल-मैगज़ीन का संपादन उन्होंने विद्यार्थियों के हवाले किया; भरोसा दिया—“गलतियाँ होंगी, तभी सीख पक्की होगी।” इसी भरोसे ने आत्मविश्वास के बीजों को अंकुरित किया; आवाज़ में कंपन धीरे-धीरे कथ्य की दृढ़ता में बदल गया। उनकी कक्षा से निकले छात्र केवल परीक्षाओं में सफल नहीं, प्रस्तुतियों, साक्षात्कारों और सामाजिक पहलों में भी अग्रणी दिखे—क्योंकि उन्होंने ‘ज्ञान’ के साथ ‘अभिव्यक्ति’ और ‘जिम्मेदारी’ की त्रिवेणी रगों में उतार दी थी।

समकालीन दौर में उन्होंने सीख का दायरा डिजिटल जगत तक बढ़ाया। ऑनलाइन कक्षाएँ हों या ब्लेंडेड लर्निंग, वे हर नए माध्यम को ‘उपकरण’ की तरह अपनाते, ‘आश्रय’ की तरह नहीं; कहते, “तकनीक चाबी है, कमरा नहीं; खुलते ही अंदर मेहनत करनी पड़ेगी।” वे स्रोत-जांच, संदर्भ-लेखन और मौलिकता पर विशेष बल देते; नकल और कॉपी-पेस्ट की प्रवृत्ति पर स्पष्ट चेतावनी—“तुरंत लाभ, स्थायी हानि”; साथ ही समाधान—“सार समझो, अपने शब्द गढ़ो, और जहाँ से लिया है, वहाँ का आभार लिखो।” साइबर-सुरक्षा, स्क्रीन-समय का संतुलन, और डिजिटल शिष्टाचार—ये सब वे पढ़ाई के पाठ्यक्रम के साथ जीवन-पाठ्यक्रम में जोड़ देते। समूह-परियोजनाओं में वे ‘भूमिकाओं का संतुलन’ कराते—शोध, लेखन, संपादन, प्रस्तुति; हर किसी को जिम्मेदारी और अवसर दोनों मिलते। इस तरह तकनीक ‘खेल’ नहीं, ‘कला’ बन गई—खोजने, बनाने और बाँटने की कला। वर्तमान युग के लिए यही सबसे बड़ी सीख थी कि ज्ञान का दायरा जितना फैले, उतनी ही गहरी जड़ें भी चाहिए—आत्मानुशासन, सत्यनिष्ठा और करुणा।

समाज-सेवा उनके शिक्षण का अविभाज्य हिस्सा थी। वे कहते, “कक्षा की चारदीवारी से बाहर ही पाठ का असली प्रायोगिक भाग है।” रक्तदान शिविर, वृक्षारोपण, पुस्तक-संग्रह, और समीप के बस्तियों में साक्षरता-शिविर—इन सब में वे स्वयं आगे रहते और हमें साथ ले जाते। पहली बार जब हम स्लम-क्षेत्र के बच्चों को पढ़ाने गए, तो उन्होंने निर्देश दिया—“दयाभाव नहीं, सम्मान; सहायता नहीं, साझेदारी।” उस दिन सीख मिला कि सेवा का अर्थ ‘ऊपर से देना’ नहीं, ‘बगल में खड़े होना’ है। पर्यावरण-गतिविधियों में वे ‘एक छात्र—एक पौधा—एक वर्ष’ अभियान चलाते; हर पौधे के साथ एक डायरी—कब पानी दिया, कितनी धूप मिली, किसने देखभाल की—इस छोटे अभ्यास ने जिम्मेदारी की नयी परिभाषा लिख दी। उन्होंने बार-बार बताया कि शिक्षा केवल परीक्षा की सीढ़ी नहीं, समाज की सीवन है; जितनी मजबूत सीवन, उतना सुंदर वस्त्र। यह विचार धीरे-धीरे हमारे स्वभाव का हिस्सा बना; मदद संयोग नहीं, आदत बनने लगी—बस में सीट देना, कूड़ा डिब्बे में डालना, और मोहल्ले के पुस्तकालय में स्वयंसेवा—ये सारे छोटे काम भी बड़े संस्कार का आधार बन गए।

मेरे अंदर जो परिवर्तन दिखाई दिए—आत्मविश्वास, अभिव्यक्ति, संयम और सहानुभूति—वे उनके ही सान्निध्य की देन थे। पहले जहाँ मंच के नाम से घबराहट होती थी, अब वही मंच अपनेपन से बुलाने लगा; लेखन जो कभी भारी लगता था, अब मन की साँस बन गया। अंकों से आगे बढ़कर मैंने प्रक्रिया से प्रेम करना सीखा—रोज़ का पढ़ना, साप्ताहिक पुनरावर्तन, और मासिक आत्म-समीक्षा। उन्होंने समझाया—“अंक तुम्हारा परिचय नहीं, प्रदर्शन का संकेत हैं; परिचय तुम्हारा व्यवहार है।” इस वाक्य ने दबाव को दिशा में बदल दिया। असफलता आई भी तो ‘सीख’ के साथ; सफलता मिली तो ‘कृतज्ञता’ के साथ। माता-पिता के साथ मेरा संवाद खुला; शिकायत की जगह साझेदारी हुई—पढ़ाई अब अकेली लड़ाई नहीं रही, परिवार के साथ यात्रा बन गई। यही कारण है कि करियर के चुनाव से लेकर रोज़ के छोटे निर्णयों तक, मन ‘सही क्या है’ पूछता है, ‘सहज क्या है’ नहीं; और जो पूछने का साहस रखता है, वह भटकता नहीं—बस कभी-कभी रुककर रास्ता देख लेता है।

अंततः, प्रिय शिक्षक वही होता है जो किताबें ही नहीं, जीवन भी पढ़ा दे; जो डाँट से नहीं, दृष्टि से सुधार दे; जो लक्ष्य दिखाने के साथ पाँव के काँटे भी निकाल दे। मेरे आदर्श गुरु के साथ बिताए दिनों ने यह सिखाया कि शिक्षा सिर का ताज नहीं, कंधों का दायित्व है; जितना सीखा, उतना बाँटना है—शब्द भी, समय भी, और मुस्कान भी। उनकी सीख आज भी धड़कनों में गीत-सी गूँजती है—“कम बोलो, ज़्यादा करो; कम दिखो, ज़्यादा बनो; और जो बनो, उस पर विनम्र रहो।” यदि जीवन एक लंबी नदी है, तो शिक्षक उसका तट हैं—वे बहाव को दिशा देते हैं और बाढ़ में बाँध बन जाते हैं। यही कारण है कि आज भी जब कोई नया काम शुरू करता हूँ, मन ही मन उनकी पंक्ति दोहरा लेता हूँ—“जहाँ संदेह हो, मेहनत बढ़ा दो; जहाँ डर लगे, सच बोल दो; और जहाँ विकल्प हों, मूल्य चुन लो।” इसी उजाले ने छात्र को नागरिक बनाया, पाठक को लेखक, और सीखने वाले को सीख बाँटने वाला। मेरे लिए वही शिक्षक प्रिय है—जो मेरे भीतर का बेहतर मनुष्य जगा दे।

अस्वीकरण (Disclaimer):
यह निबंध केवल शैक्षणिक संदर्भ और प्रेरणा हेतु प्रस्तुत किया गया है। पाठकों/विद्यार्थियों को सलाह दी जाती है कि वे इसे शब्दशः परीक्षा या प्रतियोगिताओं में न लिखें। इसकी भाषा, संरचना और विषयवस्तु को समझकर अपने शब्दों में निबंध तैयार करें। परीक्षा अथवा गृहकार्य करते समय शिक्षक की सलाह और दिशा-निर्देशों का पालन अवश्य करें।

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