दिसंबर की कड़क ठंड में धूप की पतली चादर तन पर डालकर जब किसी चौखट पर “बाबूजी, एक रोटी…” कहता हूँ, तब आवाज़ से पहले शर्म बाहर निकल आती है। मैं जन्मजात भिखारी नहीं, न ही आलसी; कभी औज़ारों से खेलती मेरी उंगलियाँ अब सन्न हैं, जैसे किसी ने बुझते दीये पर कटोरा धर दिया हो। पहले मैं भी अपने घर की देहरी पर बैठकर चूल्हे की आँच में आँखें सेंकता था; खेत की मेड़ें मेरे पैरों की रेखाएँ पहचानती थीं, और शाम ढले बच्चे मेरी गोद में चिड़िया बनकर छुप जाते थे। पर वक्त की तेज आँधी कब किसे उखाड़ ले जाए, कौन जानता है! एक झटके में सब कुछ उलट गया—और जो बचा, वह सिर्फ साँसों की आवाजाही थी। लोग कहते हैं—भीख माँगने से अच्छा मेहनत से खाना; सच है, पर हर सच के पीछे एक कहानी भी होती है। मेरी कहानी की शुरुआत भूख से नहीं, हादसे से होती है; भूख तो उस हादसे की छाया है, जो लगातार मेरे साथ चलती है। मैं हर दरवाज़े पर सिर झुकाकर खड़ा होता हूँ, पर भीतर सिरा बचा रहता है—जो बार‑बार फुसफुसाता है, “तू काम से जीया है, दान से नहीं।” यही फुसफुसाहट मुझे हर सुबह उठाती है, फिर भी शाम को वही कटोरा हाथ में थमा देती है; जैसे जीवन और लाचारी के बीच एक अदृश्य रस्साकशी चल रही हो।
मैं गुजरात के एक छोटे गाँव का रहने वाला था; मिट्टी वहाँ भी लाल थी, पर आँखें हरियाली से भरीं। एक बीघा खेत, कुछ औज़ार, और कारीगरों के संग मेरा रोज़गार—लोहे को आकार देता, लकड़ी को साँस देता, और अपनी हथेली से पसीना पोंछकर मुस्कुरा देता। घर में एक सरल‑सी खुशहाली थी—पत्नी की हँसी, बच्चों की किलकारी, और रसोई की सोंधी खुशबू; मैं देर तक बाहर रुकता तो वे दरवाज़े पर खड़े राह देखते। पर एक बरस, धरती थरथरा उठी; पहले एक धक्का, फिर दूसरा, और देखते ही देखते दीवारें बैठ गईं। लोग “भगवान की मर्ज़ी” कहकर रोए, पर मेरा गला शब्दों से पहले ही रुँध गया—मेरे घर की छत मेरे सबसे प्यारे तीन सिरों पर गिर चुकी थी। उस रात मैं मरा नहीं, पर जी भी नहीं पाया; सुबह हुई तो गाँव का नक्शा बदल चुका था और मेरे भीतर का नक्शा भी। राहत आई, पर राहत में मेरा नंबर पीछे रह गया; कागज़ों में मेरी मिट्टी का पता खो गया। मैं गाँव‑गाँव भटका—किसान से मज़दूर, मज़दूर से मिस्त्री, मिस्त्री से चौकीदार—हर दरवाज़े ने कहा, “काम कम, हाथ ज़्यादा”; तब मैंने अपनी बदली हुई किस्मत का हाथ पकड़कर शहर की ओर कदम बढ़ाए।
शहर में चकाचौंध थी, पर वह किसी और के लिए थी; मेरे लिए सिर्फ़ भीड़ थी—भीड़, जिसमें चेहरों के साथ आवाज़ें भी धक्के देती रहती हैं। मैंने बहुत काम ढूँढा—ढुलाई, बेलदारी, गोदाम, होटल, दिहाड़ी; कुछ दिन मिला भी, पर स्थायी कुछ न बना। तब तक मेरे हाथ में ताकत थी और दिल में उम्मीद; “कल होगा” कहकर सो जाता, “आज कर” कहकर उठ जाता। पर एक दोपहर सड़क ने मेरी पीठ पर मोटर की मुहर लगा दी; धक्का लगा, आँखों के आगे अँधेरा घिरा, और मैं मुँह के बल गिर पड़ा। होश अस्पताल में आया—दाहिना हाथ जैसे शरीर से अलग होकर लटक रहा था; डॉक्टरों ने कहा, “हड्डी बैठ जाएगी”, फिर बोले, “नसें जवाब दे चुकी हैं”—मैंने सुन लिया कि अब औज़ार मुझे नहीं पहचानेंगे। उस दिन पहली बार समझ आया कि ‘हाथ तंग होना’ मुहावरा नहीं, हकीकत है; मजदूर का हाथ टूटे तो सिर्फ़ हड्डी नहीं, रोज़गार, सम्मान और स्वाभिमान—सब एक साथ टूट जाते हैं। कागज़ों में मैं “आंशिक रूप से दिव्यांग” हो गया, पर पेट को इसका अर्थ कौन समझाए? वही पेट जो नीति नहीं, निवाला समझता है; वही पेट जो कहता है—“जियो, भले झुककर।”
पहला कटोरा मैंने रोकर उठाया; लगा, जैसे मैं नहीं, मेरा अपमान लोगों के आगे फैल गया। सड़क पर सैकड़ों आँखें हैं—कुछ दया की, कुछ घृणा की, कुछ उदासीन; इनके बीच मुझे रोज़ अपनी साँस नापनी होती है। कोई सिक्का यूँ ही फेंक देता है, कोई रोटी थमा देता है, कोई डपटकर पास से निकाल देता है; कभी‑कभी दया का हाथ सिर पर लगता है तो लगता है जैसे माँ ने माथे पर पसीना पोंछा हो। लेकिन दया रुटीन नहीं, संयोग है; भूख रुटीन है, निश्चित है। रात को फुटपाथ मेरा बिछौना है; बरसात में यह बिछौना गीला रोने लगता है, जाड़ों में काँपता है, और लू में तपता है। पुलिसवाला कभी हुलिया पूछता है, कभी हटाता है—उसे भी अपनी ड्यूटी निभानी होती है; सफाईकर्मी आता है और मेरा छोटा संसार ठेल देता है। फिर भी, सुबह होती है और मैं उठ खड़ा होता हूँ; “जीवन है तो संयम है”—यह कहावत धीरे‑धीरे मेरे भीतर जम गई। मैं पत्तल समेटता हूँ, कटोरा धोता हूँ, और सूरज से आँख मिलाकर कहता हूँ—चल, आज फिर कोशिश।
कई लोग पूछते हैं—“तुम्हारी पत्नी? बच्चे?”—यह सवाल सुनते ही छाती में पुराना दर्द ताज़ा हो उठता है; जैसे कच्चे घाव पर किसी ने उँगली रख दी हो। सच यह है कि उस भूकंप ने सिर्फ़ घर नहीं गिराया; उसने मेरी दुनिया के दो खंभे और एक छत साथ में गिरा दी। पत्नी की हँसी अब कानों में नहीं, यादों में बजती है; बच्चों की किलकारी किसी और आँगन में जन्म ले चुकी होगी। पहले जहाँ उम्मीद थी, वहाँ अब एक सूना आकाश है; फिर भी मैं उसे देखता हूँ और तय करता हूँ कि खुद को गिरने नहीं दूँगा। आत्महत्या कई बार मन में आई, पर मन हर बार डर से नहीं—धर्म से लौटा; ‘जिंदगी भगवान की देन है’, यह वाक्य मेरे अंदर किसी पुरानी दादी की कहानी की तरह टँगा है। इसलिए मैंने मरना नहीं चुना, जीना चुना—भले ही झुककर। यह झुकना हार नहीं, विराम है; शायद आगे कोई मोड़ होगा जहाँ रास्ता फिर समतल हो जाए। मैं जानता हूँ—“हार मानने से हार पक्की, कोशिश करने से किस्मत पिघलती है”—और मैं रोज़ किस्मत को मनाता हूँ।
शहर बदल गया है; अब कई लोग मोबाइल से पैसे देते हैं, कोई लिंक माँगता है, कोई पूछता है—“आधार है? बैंक खाता है? काम करवाऊँ?”—मैं मुस्कुराकर कहता हूँ, “खाते में क्या रखूँ, जब हाथ में कुछ नहीं?” कुछ संस्थाएँ शिविर लगाती हैं—आश्रय‑गृह, समुदायिक भोजन, दस्तावेज़ बनवाने में सहायता, कौशल प्रशिक्षण; उनसे मिला तो लगा कि दया से आगे “दिशा” भी हो सकती है। किसी ने कहा—“तुम्हारा हाथ नहीं, पर पैर और दिमाग है; चौकीदारी, पैकिंग, स्टोर‑हेल्प, या कॉल‑सेंटर का साधा काम”—मैंने सोचा, “क्यों नहीं?” फिर किसी ने बताया—“कृत्रिम हाथ लग सकता है, फिजियो से ताकत लौट सकती है”—मेरी आँखें चमक उठीं; वर्षों बाद लगा कि कटोरा जमीन पर रख दूँ। पर इन सबके लिए कागज़ चाहिए—पहचान, पते का प्रमाण, दो फोटो; मेरे पास था सिर्फ़ मेरा चेहरा और मेरा किस्सा। तब समझ आया कि कागज़ भी आदमी का अंग है; बिना कागज़ के शहर में आदमी अदृश्य हो जाता है। अब मैं दस्तावेज़ बनवा रहा हूँ—कदम धीमे हैं, पर चल रहे हैं; शायद कल कोई दरवाज़ा नौकरी के नाम खुल जाए।
मेरी दिनचर्या साधारण पर कठिन है—सुबह किसी मंदिर के बाहर या दफ्तर की कतार के किनारे बैठता हूँ; चेहरे पढ़ता हूँ, पैरों की चाल से मन का मौसम तौलता हूँ। जो आँखें जल्दी में हैं, उन्हें कुछ नहीं कहना; जो ठहरती हैं, उन्हें धीरे से “राम राम” कहना, “किसी से माँगना” नहीं, “किसी से कहना”—इसी फर्क में मेरी रोज़ी छिपी है। कई चेहरे रोज़ के परिचित हैं—एक बूढ़ी अम्मा दूध की थैली थमा जाती है, एक ऑफिस‑वाला बचा टिफिन दे देता है; दो‑चार सिक्के, और दिन निकल आता है। दोपहर को पेड़ की छाँह, शाम को किसी बरामदे का किनारा; रात आते‑आते मेरी थकान मेरे ऊपर चादर बनकर गिरती है। कभी कोई बच्चा सवाल करता है—“आप काम क्यों नहीं करते?”—तो मैं मुस्कुराकर कह देता हूँ—“बेटा, काम मेरे हाथ में था; हाथ तो देख रहे हो”—और उसका छोटा मन मेरी बड़ी कहानी समझ जाता है। मैं बच्चों की मासूमियत से अपने भीतर का नमक पोंछ लेता हूँ; फिर अगले दिन फिर से तैयार हो जाता हूँ—जीने के लिए, उम्मीद के लिए।
लोगों से मेरी विनती छोटी है—प्यार बाँधता नहीं, उठाता है; जब भी किसी चौखट पर हम जैसे कोई दिखे, पहला ख्याल रोटी का हो, दूसरा ख्याल रास्ते का। खाने के साथ दो वाक्य—“कहाँ सोते हो? कागज़ बने हैं? ये नंबर है, इस शिविर में जाओ”—यही हमारे लिए सेतु हैं। पैसे से अधिक मदद है सही जानकारी, सही पते, और सही व्यक्ति का नंबर। यदि शहर के हर मोहल्ले में एक पोस्टर टँगा हो—आश्रय‑गृह, भोजन‑केंद्र, चिकित्सक, कौशल प्रशिक्षण, दस्तावेज़ सहायता—तो हम सब धीरे‑धीरे कटोरों से फाइलों तक पहुँच जाएँगे। समाज चाहे तो फुटपाथ पर सोए हजारों लोगों में से सैकड़ों को हर महीने स्थायी काम से जोड़ सकता है; “एक मोहल्ला—एक पुनर्वास” कोई बड़ी बात नहीं, बस नीयत और नेटवर्क चाहिए। हम पर दया की परछाई न डालो; हमें सूरज दिखाओ, हम खुद चल लेंगे। “हाथ नहीं, हिम्मत पकड़ा दो”—हमारे लिए यही सबसे बड़ा दान है।
आज भी मैं कभी‑कभी उस दिन को याद करता हूँ, जब एक सज्जन ने मेरे आँसू देखे, कहानी सुनी, और मुझे भरपेट भोजन करवाकर पुराने कपड़े दे दिए। वह दिन सिर्फ पेट नहीं भरा; उस दिन अंदर का आकाश थोड़ा साफ हुआ, और लगा कि दुनिया में कान अभी भी बचे हैं जो सुनते हैं। उन्होंने मुझसे कहा—“कल इस पते पर मिलना; कागज़ बनवा देंगे, काम भी देखेंगी”—मैं अगले दिन गया और पाँवों ने महसूस किया कि धरती अब उतनी फिसलन भरी नहीं रही। वहाँ एक टीम मिली—किसी ने फोटो लिया, किसी ने फॉर्म भरवाया, किसी ने हाथ का जाँच‑पर्चा लिखा; मैंने पहली बार अपना नाम एक बड़े अक्षर में देखा। यह मामूली नहीं; यह उस अदृश्य आदमी का जन्म‑प्रमाण था, जो सालों से भीड़ में खोया था। उस शाम मैंने कटोरा जमीन पर रखकर आसमान देखा; बादलों के बीच एक चीरा‑सा था, जिसमें से उजाला बह रहा था—जैसे किसी ने भीतर की रात में टाँका लगा दिया हो।
मेरी आपबीती किसी एक आदमी की निजी त्रासदी नहीं; यह शहर के उन हजारों चेहरों की छाया है, जिन्हें हादसों, बीमारियों, धोखे या दस्तावेज़ों की कमी ने फुटपाथ पर ला बिठाया। कोई प्रवासी मज़दूर कागज़ों के बिना काम खो देता है; कोई महिला हिंसा से भागकर रात में स्टेशन पर सोती है; कोई वृद्ध इलाज के खर्च में घर‑परिवार दोनों खो देता है। इन सबके बीच समाज की असली परीक्षा यही है कि वह दया को दिशा में बदलता है या नहीं। नीति‑स्तर पर आश्रय‑गृह, सस्ती किराये की झुग्गियाँ, सामुदायिक रसोई, दस्तावेज़‑शिविर, कौशल केंद्र और स्थानीय रोज़गार—ये छह धागे अगर जोड़ दिए जाएँ तो फुटपाथ घिसते पाँव भी फिर से जूतों की आवाज़ पाने लगें। हम भी नागरिक हैं—मत डालते हैं, टैक्स के सामान खरीदते हैं, कानून से डरते हैं; हमें बस वही चाहिए जो हर नागरिक को चाहिए—सुरक्षा, अवसर, और सम्मान। हम पर तरस मत खाओ; हमें बराबरी पर खड़ा होने दो।
अंत में, मेरी कहानी का सार एक वाक्य में—मैं भिखारी नहीं, परिस्थितियों का घायल कारीगर हूँ। मेरा दाहिना हाथ चुप है, पर बायाँ अभी भी जीवन को थामे है; मेरी पीठ झुकी है, पर आँखों में ऊँचाई बची हुई है। अगर समाज हाथ थाम ले और सिस्टम रास्ता दिखा दे, तो मैं कटोरा छोड़कर औज़ार उठा लूँगा; कल के किसी सवेरे अपने बच्चों की किलकारी का नया अर्थ सुनना चाहता हूँ—शायद किसी और के आँगन में, मेरी मेहनत से बनी खिड़की के पीछे। “पानी ऊपर चढ़ता नहीं, पर धैर्य से बाँध बनता है”—मैं बाँध बना रहा हूँ; पत्थर छोटा है, धारा तेज है, पर इरादा ठोस है। मेरी आत्मकथा यहीं खत्म नहीं होती; यह वहीं से शुरू होती है जहाँ आप मेरा हाथ पकड़ते हैं और कहते हैं—“चलो, काम ढूँढते हैं।” उस दिन मैं सचमुच भिखारी से फिर मनुष्य बन जाऊँगा—वह मनुष्य जो भीख नहीं, अवसर की रोटी से पेट भरता है, और सम्मान के स्वाद से जी भरता है।
अस्वीकरण (Disclaimer):
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