सहकारिता आंदोलन (Cooperative Movement in India: History, Achievements, and Challenges)

सहकारिता का शाब्दिक अर्थ है – मिलकर कार्य करना। जब समाज के लोग व्यक्तिगत स्वार्थ को त्यागकर सामूहिक हित के लिए एकजुट होते हैं तो सहयोग और परस्पर विश्वास की शक्ति से असंभव प्रतीत होने वाले कार्य भी संभव हो जाते हैं। सहकारिता आंदोलन का आधार यह सिद्धांत है कि “एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं।” यदि कोई व्यक्ति अकेले काम करता है तो उसे आर्थिक संसाधनों की कमी, मानसिक बोझ और असफलता का भय सताता है। परंतु जब वही व्यक्ति किसी सहकारी संस्था से जुड़ता है तो उसका दायित्व साझा हो जाता है और कठिनाई का बोझ भी हल्का लगता है। सहकारिता केवल आर्थिक सुधार का साधन नहीं है, यह सामाजिक और नैतिक उन्नति का मार्ग भी है। सहकारिता से पूँजी का सही वितरण संभव होता है, बेरोजगारों को काम मिलता है, और लोग शोषण से मुक्त होकर गरिमा के साथ जीवन जी पाते हैं।

सहकारिता आंदोलन के अनेक लाभ हैं। सामूहिक प्रयास से बड़े-बड़े कार्य सरलता से पूरे किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, गाँव में यदि किसान अलग-अलग उर्वरक या बीज खरीदते हैं तो उन्हें महंगे दाम देने पड़ते हैं, परंतु यदि वे सहकारी समिति बनाकर सामूहिक रूप से खरीदें तो लागत घट जाती है और सभी को समान लाभ मिलता है। इसी प्रकार सहकारी बैंक किसानों को कम ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराते हैं, जिससे वे साहूकारों के जाल से बच पाते हैं। सहकारिता का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह आपसी विश्वास बढ़ाती है और भाईचारे की भावना को प्रबल करती है। संगठन में सेवाभावी और ईमानदार व्यक्तियों का चुनाव होने से भ्रष्टाचार की गुंजाइश कम रहती है। सहकारिता से समाज में समानता और न्याय की स्थापना होती है, जो किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए आवश्यक है।

सहकारी योजनाओं को सफल बनाने के लिए केवल जनता का उत्साह ही पर्याप्त नहीं होता, अपितु सरकार का सहयोग और मार्गदर्शन भी अनिवार्य है। यदि सहकारी संस्थाएँ सरकारी निगरानी से दूर रहेंगी तो उनमें अव्यवस्था फैल सकती है और जनता का विश्वास डगमगा सकता है। सरकार का कर्तव्य है कि वह सहकारी समितियों को वित्तीय सहायता दे, उनके कामकाज की समय-समय पर जाँच करे और पारदर्शिता सुनिश्चित करे। उदाहरण के लिए, किसानों को ऋण उपलब्ध कराने वाली सहकारी समितियाँ तभी सफल होंगी जब सरकार उनकी पूँजी बढ़ाए और ब्याज दरों पर नियंत्रण रखे। यदि सरकारी सहायता न मिले तो ये समितियाँ भी निजी साहूकारों जैसी बन सकती हैं और किसानों को शोषण से मुक्ति नहीं मिल पाएगी। अतः सहकारिता आंदोलन की सफलता सरकार और जनता के संयुक्त प्रयास पर निर्भर करती है।

भारत एक कृषिप्रधान देश है और यहाँ की अधिकांश जनता अपनी आजीविका कृषि पर निर्भर करती है। ऐसे देश में सहकारिता आंदोलन का महत्व और भी बढ़ जाता है। किसान अक्सर पूँजी की कमी, अनिश्चित मौसम और बाजार की अस्थिरता के कारण परेशान रहते हैं। सहकारिता समितियाँ उन्हें बीज, उर्वरक, सिंचाई के साधन और उचित मूल्य पर ऋण उपलब्ध कराती हैं। इससे किसान अपने खेतों में बेहतर उत्पादन कर पाते हैं और उन्हें अपनी उपज का पूरा दाम भी मिलता है। सहकारिता आंदोलन ने किसानों को साहूकारों और बिचौलियों की पकड़ से काफी हद तक मुक्त किया है। आज गाँव-गाँव में बनी सहकारी समितियाँ ग्रामीण विकास का आधार बन चुकी हैं।

सहकारिता का सबसे बड़ा और सफल उदाहरण भारत की श्वेत क्रांति है। जब दुग्ध उत्पादन को सहकारी समितियों से जोड़ा गया तो लाखों छोटे-बड़े किसानों को इससे लाभ हुआ। गुजरात का अमूल संगठन विश्व का सबसे बड़ा सहकारी संघ है, जिसने भारत को दूध और दुग्ध उत्पादों के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बना दिया। पहले ग्रामीण क्षेत्रों में दूध का सही मूल्य नहीं मिल पाता था, लेकिन सहकारी समितियों ने बिचौलियों को हटाकर किसानों को सीधा बाजार से जोड़ा। इससे किसानों की आय बढ़ी, उपभोक्ताओं को शुद्ध दूध मिला और देश की अर्थव्यवस्था मजबूत हुई। अमूल मॉडल आज विश्वभर के देशों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

सहकारिता आंदोलन ने केवल कृषि और दुग्ध उत्पादन तक ही अपने कदम सीमित नहीं रखे हैं। आज यह उद्योग, व्यापार, परिवहन और विपणन जैसे क्षेत्रों में भी सक्रिय भूमिका निभा रहा है। सहकारी उपभोक्ता भंडार लोगों को उचित दाम पर आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध कराते हैं। सहकारी आवास समितियाँ मध्यम वर्गीय और निम्न वर्गीय लोगों को सस्ते घर उपलब्ध कराती हैं। सहकारी बैंकों ने आम जनता की आर्थिक जरूरतों को पूरा किया है। इन संस्थाओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि यदि लोग मिलकर काम करें तो वे किसी भी बड़े कॉर्पोरेट या निजी संस्था से बेहतर परिणाम दे सकते हैं।

सहकारिता का मूल भाव सामूहिकता है। इसमें लाभ और हानि सभी सदस्यों के बीच बाँटी जाती है। यही कारण है कि सहकारी संस्थाएँ केवल आर्थिक लाभ तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि सामाजिक उत्थान में भी योगदान देती हैं। गाँवों में सहकारी समितियाँ लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के अवसर भी प्रदान कर रही हैं। वे सामाजिक कुरीतियों, नशाखोरी और अशिक्षा के खिलाफ भी जागरूकता फैलाती हैं। सहकारिता से लोगों में सेवा-भाव और त्याग की भावना विकसित होती है। यह आंदोलन व्यक्तियों को आत्मनिर्भर बनाकर उन्हें राष्ट्रनिर्माण में सक्रिय भागीदार बनाता है।

यद्यपि सहकारिता आंदोलन के अनेक लाभ हैं, फिर भी यह चुनौतियों से मुक्त नहीं है। कई बार सहकारी समितियों में गुटबाज़ी, भ्रष्टाचार और राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ जाता है, जिससे उनका उद्देश्य बिगड़ जाता है। कुछ समितियाँ केवल नाम मात्र की रह जाती हैं और उनका फायदा चुनिंदा लोगों तक ही सीमित रह जाता है। इस स्थिति से बचने के लिए आवश्यक है कि सहकारी समितियों का संचालन पारदर्शी और लोकतांत्रिक ढंग से हो। सरकार को चाहिए कि वह केवल निगरानी ही न रखे, बल्कि सदस्यों को सही प्रशिक्षण और तकनीकी सहायता भी दे। जब तक ईमानदारी और सेवा-भावना सहकारिता आंदोलन का आधार नहीं बनेगी, तब तक इसका पूरा लाभ समाज को नहीं मिल पाएगा।

आज के समय में सहकारिता आंदोलन को आधुनिक तकनीक और डिजिटल माध्यम से जोड़ना बहुत आवश्यक है। यदि सहकारी समितियाँ डिजिटल प्लेटफॉर्म पर कार्य करेंगी तो वे सीधे उपभोक्ताओं तक पहुँच पाएँगी और बिचौलियों की भूमिका और घट जाएगी। इससे पारदर्शिता भी बढ़ेगी और किसानों या उत्पादकों को उचित दाम मिलेगा। ई-कॉमर्स और ऑनलाइन विपणन के दौर में सहकारिता को भी समय के साथ चलना होगा। सरकार यदि इन्हें तकनीकी सहायता और प्रशिक्षण दे तो सहकारिता आंदोलन नई ऊँचाइयों तक पहुँच सकता है।

निष्कर्षतः सहकारिता आंदोलन समाज और राष्ट्र दोनों के लिए अत्यंत लाभकारी है। यह आंदोलन न केवल आर्थिक विषमताओं को दूर करता है, बल्कि सामाजिक समानता और भाईचारे को भी प्रबल करता है। सहकारिता से छोटे किसान, मजदूर, व्यापारी और आम नागरिक सभी को सशक्त बनाया जा सकता है। भारत जैसे विशाल और विविधताओं वाले देश में सहकारिता आंदोलन आत्मनिर्भरता और विकास की कुंजी है। यदि सरकार, समाज और जनता मिलकर इसे ईमानदारी से आगे बढ़ाएँ तो भारत को एक सशक्त, समृद्ध और समानतामूलक राष्ट्र बनाया जा सकता है। यही सहकारिता आंदोलन का वास्तविक उद्देश्य है।

अस्वीकरण (Disclaimer):
यह निबंध केवल शैक्षणिक संदर्भ और प्रेरणा हेतु प्रस्तुत किया गया है। पाठकों/विद्यार्थियों को सलाह दी जाती है कि वे इसे शब्दशः परीक्षा या प्रतियोगिताओं में न लिखें। इसकी भाषा, संरचना और विषयवस्तु को समझकर अपने शब्दों में निबंध तैयार करें। परीक्षा अथवा गृहकार्य करते समय शिक्षक की सलाह और दिशा-निर्देशों का पालन अवश्य करें।

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